आज जर्मनी में जलवा बिखेरने वाले, सड़कों पर बेचते थे नारियल

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मेरा जन्म बंगलूरू के उस परिवार में हुआ था, जिनके मुखिया सड़कों पर नारियल बेचने का काम करते थे। मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा पारिवारिक हालात ने बर्बाद किया है। दस साल की उम्र में ही मुझे पढ़ाई छोड़ बाल श्रम के लिए मजबूर होना पड़ा। परिवार की मदद करने की खातिर मैंने दुकानों में औजार चलाए, होटलों में बर्तन साफ किए, गलियों में घूमकर नारियल बेचे, यहां तक कि कचरा बीनने का भी काम किया। मेरी जिंदगी में बड़ा बदलाव तब आया, जब मैं एक एनजीओ के संपर्क में आया। उस वक्त मेरी उम्र ग्यारह साल थी। बॉर्नफ्री आर्ट स्कूल नामक इस संस्था ने मुझे सामान्य शिक्षा के साथ कला की भी तालीम दी।
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कला की दुनिया से परिचय होने के बाद मुझे एक साथ कई चीजें सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे नृत्य, संगीत, पेंटिंग, फोटोग्राफी, थियेटर और मूर्तिकला जैसी विधाओं के सभी बुनियादी तौर-तरीके सिखाए गए। मुझे एहसास हुआ कि कला में कितनी ताकत होती है। बहुत जल्द मैंने खुद को एक सड़क छाप कूड़ा बीनने वाले लड़के की पहचान से आजाद पाया। कला की सभी विधाओं में मैंने नृत्य को सबसे ज्यादा तरजीह दी। नृत्य लोगों को एक सामान्य क्रिया लग सकती है, पर इसने मुझे जिंदगी के मायने सिखाए। नतीजा यह निकला कि सत्तरह की उम्र में आते-आते मैंने तय कर लिया था कि मैं नृत्य को ही जिंदगी जीने का जरिया बनाऊंगा।

हालांकि मेरी राह कभी आसान नहीं रही। नृत्य सीखने के लिए मुझे हर दिन घर से मल्लेश्वरम तक की तीस किलोमीटर यात्रा करनी पड़ती थी। मेरा भविष्य नृत्य ही था, मगर मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। तेरह साल में मैं दोबारा स्कूल जाने लगा। मैंने हमेशा खूब मेहनत से पढ़ाई की, क्योंकि मुझे पता था कि मेरे घर वाले मेरी फीस नहीं भर सकते। जो भी करना था, मुझे खुद से हासिल करना था। मैंने वजीफे की मदद से अर्थशास्त्र में स्नातक किया। यही नहीं, मैंने मार्शल आर्ट में भी महारत हासिल की। 2009 में मैं एक राष्ट्रीय स्तर की जिमनास्टिक प्रतियोगिता का चैंपियन बना।

अगले ही साल मैंने कर्नाटक राज्य स्तरीय जिमनास्टिक में स्वर्ण पदक जीता। जल्द ही शोहरत मेरी आदत बन गई। इंडियाज गॉट टैलेंट, कर्नाटका सुपरस्टार, एंटरटेनमेंट को खुशी करो जैसे  टीवी शो में मेरा चेहरा दिखने लगा। मैं भले ही प्रसिद्ध हो चुका था, लेकिन मैंने कभी अपने अतीत से मुंह नहीं मोड़ा।

मुझे गरीबी का हर एक अनुभव हमेशा याद रहा। यही वजह रही कि समर्थ होते ही मैंने एक सहयोगी की मदद से अपना एनजीओ शुरू किया। यह एनजीओ उन जरूरतमंद, वंचित बच्चों के लिए काम करता है, जिनके अंदर किसी भी प्रकार की कला की अभिरुचि होती है। हम उन्हें ढूंढते हैं, तराशते हैं और अपनी काबिलियत साबित करने का मंच मुहैया कराते हैं। हमने यूनिसेफ के साथ मिलकर देश के दूसरे हिस्सों में भी कला की विभिन्न कार्यशालाएं आयोजित की हैं।

हाल ही में मुझे खुद को साबित करने का एक और सुनहर मौका मिला है। मैंने जर्मनी के एक प्रतिष्ठित डांसिंग स्कूल की स्कॉलरशिप जीती है। इसके अंतर्गत मुझे हैम्बर्ग शहर में स्थित कंटेम्पररी स्कूल ऑफ डांस में तीन वर्षीय डिग्री कोर्स करने का अवसर प्राप्त हुआ है। निश्चित रूप से बचपन में कचरा बीनने वाले किसी पच्चीस वर्षीय भारतीय के लिए यह गौरव की बात है।

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