पालघर सीट पर बीजेपी की जीत, शिवसेना के लिए बहुत बड़ा झटका

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पालघर सीट पर बीजेपी की जीत शिवसेना के लिए बहुत बड़ा झटका है. अब शिवसेना को नए सिरे से सोचना होगा कि क्या वो बीजेपी से अलग होकर फायदे में रहगी या नहीं. बीजेपी ने पालघर सीट जीतकर शिवसेना को ये भी दिखा दिया कि अभी भी उसकी पहुंच महाराष्ट्र में शिवसेना से ज़्यादा है. हालांकि इस हार के बाद शिवसेना एक घायल शेर की तरह हो गई है जो कभी भी बीजेपी के ऊपर वार कर सकती है.
Image result for मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस और शिवसेना लीडर उद्धव ठाकरे
पालघर और भंडारा-गोंडिया सीट 2014 के चुनाव में बीजेपी के खाते में गई थी. लेकिन उपचुनाव में भंडारा-गोंडिया की सीट हार जाना बीजेपी के लिए बहुत बड़ा झटका है क्योंकि ये न सिर्फ विदर्भ क्षेत्र में बीजेपी के कैलकुलेशन पर प्रश्न चिह्न लगाता है बल्कि देवेंद्र फडनवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के भी काम पर सवालिया निशान खड़ा करता है.

जबकि दूसरी ओर पालघर में बीजेपी की जीत ने शिवसेना व बीजेपी के बीच एक खाई खड़ी कर दी है. हालत ये हो गई है, कि मतभेद दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के स्तर तक पहुंच गए हैं. इसलिए दोनों के बीच फिर से संबंधों को पहले जैसा करने में काफी मुश्किल भी आएगी.

बीजेपी चाहती है कि शिवसेना हवा का रुख समझे और उसे अगुवा समझे. लेकिन उद्धव ठाकरे को पता है कि ये उनके लिए आत्मघाती हो सकता है और ऐसा करके वो राज ठाकरे को फिर से उभरने का मौका दे सकते हैं.

शिवसेना और कांग्रेस के बीच गठजोड़ 1989 में हिंदुत्व विचारधारा को लेकर शुरू हुआ था. लेकिन सारा नज़ारा 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बदल गया. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को लगा कि उसकी पहुंच पूरे महाराष्ट्र में है और वो सीधे-सीधे कांग्रेस की जगह ले सकती है. इसलिए बीजेपी ने कांग्रेस के पारंपरिक वोट में सेंध लगानी शुरू कर दी खासकर युवाओं के वोट में. एनसीपी कांग्रेस गठजोड़ वाले दलित वोटों को काटने में भी बीजेपी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.

दूसरी तरफ शिवसेना ने बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद वोट बेस को बनाए रखने के लिए कोई कोशिश नहीं की. उसे लगता था कि उस ‘उग्र हिंदुत्व’ और ‘मराठा मानुष’ का कार्ड उसे फिर से सत्ता पर काबिज़ करा देगा. लेकिन वास्तविकता इससे कुछ उलट थी. बीजेपी ने बीएमसी चुनाव में शिवसेना के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे और गैर-मराठी जनसंख्या वाले क्षेत्रों में चुनाव जीत लिया.

तो फिर सवाल ये है कि आखिर शिवसेना के सामने विकल्प क्या हैं? क्या वह सत्ता से दूर रह के अपने अस्तित्व को बचा पाएगी?

एक बीजेपी नेता ने बताया कि शिवसेना के उग्र हिंदुत्व और मराठी उपराष्ट्रवाद की राजनीति के कारण उससे कोई पार्टी हाथ नहीं मिलाएगी. इसलिए शिवसेना के पास बीजेपी के साथ रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

लेकिन इतिहास कुछ और भी तथ्य बयान करता है. शिवसेना इससे पहले भी कांग्रेस का समर्थन कर चुकी है. शिवसेना ने न सिर्फ इमरजेंसी का समर्थन किया बल्कि 1980 के लोकसभा चुनाव में मौन तरीके से कांग्रेस का साथ दिया और उसके सामने अपना कोई भी उम्मीदवार नहीं उतारा. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ए आर अंतुले ने भी इसका कर्ज़ उतारने के लिए शिवसेना के उम्मीदवार को विधान परिषद में समर्थन दे दिया.

इसके अलावा कांग्रेस के सीएम वसंत्र नाइक को समर्थन देने के कारण शिवसेना को एक समय में ‘वसंत सेना’ के नाम से भी जाना जाता था. इसके एनसीपी से भी अच्छे संबंध थे.

बीजेपी को भी महाराष्ट्र में जो राजनीतिक ताकत मिली वो एनसीपी और कांग्रेस के बीच पनपे अविश्वास के कारण मिली. बहरहाल राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो चुकी है और उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बिल्कुल अलग ही समीकरण देखने को मिलेगा.

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