फ्रीलांसर बनके फ्री में पत्रकारिता कीजिए, अब आप भी बरफ बेचकर घर चलाइये, क्योंकि…

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नवेद शिकोह (स्वामी नवेदानंद)
लखनऊ।। अखबारों के बड़े पत्रकार छोटे अखबारों के छोटे पत्रकारों पर छींटाकशी करते रहते हैँ। उनका एक ताना तकियाकलाम बन गया है- “अब तो बर्फ बेचने वाले भी राज्य मुख्यालय पत्रकार बन गये हैं। ये ताना सही है या गलत।आज बात इस पर नहीं होगी बल्कि ताना देने वाले बड़े अखबारों और बड़े पत्रकारों के अंधकारमय भविष्य पर फिक्र करना ज्यादा जरूरी है।अब वक्त आ गया है कि बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकार अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम कर लें। ईमानदारी से व्यवसायिक पत्रकारारिता का दौर अब खत्म हो रहा है। पत्रकारिता के बुरे दिन आने वाले हैं-निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारों की नौकरियां अब जाने वाली हैं।

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अधेड़ी में नये पेशे की नौकरी मिलने से रही। करोड़ों की फैक्ट्री लगा नहीं सकते। फुटपाथ पर बर्फ या पकौड़े बेचने का काम करके घर चलाइये और फ्री में पत्रकारिता करके फ्रीलांसर बन जाइये। सख्त हालात की तपिश में जब आपकी कम पूंजी की बर्फ पिघलेगी तब आपके अंदर का अहंकार, घमंड.. गुरूर.. अकड़.. भी पिघल जायेगा। और बर्फ वाले पत्रकारों की तादाद बेतहाशा बढ़ जायेगी। सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय, डी ए वी पी.. और अखबारी कागज पर जीएसटी के सख्त फैसलों से देश के 95%अखबारों और 95%पत्रकारों/अखबार कर्मियों के रोजगार खत्म हो जायेंगे।

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दो वर्ष पहले इन खतरों पर लिखने शुरू किया था। इन विषयों पर पचास से अधिक लेख लिखे। देश की नामचीन वेबसाइटस सहित सैकड़ों वैबसाइटस में ऐसे लेख वायरल हुए। तर्क और आकड़े पेश किये। सरकारों से आग्रह किया और देश के पत्रकारों को आगाह किया। गूगल पर चस्पा इन दर्जनों लेखों ने पत्रकारों को जगाया, फिक्रमंद किया। और फिर स्थितियों से निपटने के लिए सरकारी नुमाइंदों को ज्ञापन सौंपने का सिलसिला शुरू हुआ।

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शुरू में कुछ पत्रकारों ने कुतर्क किया कि पब्लिशर और अखबारों के मालिकों पर कसे शिकंजे की लड़ाई पत्रकार क्यों लड़े? सिलसिलेवार मेरे लेख हर सवाल का जवाब देते गये। 95%अखबार खत्म होने से 95%पत्रकारों /अखबार कर्मी बेरोजगार हो जायेंगे.. पब्लिशर तो अखबार का शटर गिराकर दूसरे धंधे में माल काटेंगे, लेकिन पत्रकारों की जिंदगी कैसे कटेगी! दो साल से इन्टरनेट, गूगल, वेबसाइट्स और सोशल मीडिया में गूंज रही मेरी चीख को सुनकर जागे कुछ जागरूक पत्रकार लखनऊ से लेकर दिल्ली तक अपने हक की आवाज बुलंद करने लगे।

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इस मसले पर लखनऊ के कुछ पत्रकारों के ज्ञापनओं की बौछारों वाली तस्वीरें मुसलसल देखीं तो लगा कि छोटे अखबारों और उनके पत्रकारों को जागरूक और बेचैन करने में मैं कामयाब हो गया। लेकिन अब बड़े ब्रांड अखबारों के पत्रकार हालात से नावाकिफ और मदहोश दिख रहे हैं। इन्हें नहीं पता इन 5% ब्रांड अखबारों के पत्रकारों पर भी सख्त हालात की गाज गिरने वाली है।अखबारी कागज पर जीएसटी इन बड़े अखबारों के बड़े पत्रकारों को भी पैदल करने जा रहा है।आधे से ज्यादा संस्करण बंद करने के साथ काॅस्ट कटिंग की कैची चलने का खतरा बन गया है। अंदर खानों से खबरे आ रही हैं कि कॉन्ट्रैक्ट बेस पर काम कर रहे अखबार कर्मियों का कांट्रेक्ट समाप्त होने पर रिनीवल नहीं होगा।

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चौथे स्तम्भ से जुड़ी सरकारों की नीतियों ने जहां छोटे, मझौले, कम संसाधन वाले संघर्षरत अखबारों को गलत प्रसार प्रस्तुत करने पर मजबूर किया हैं वहीं बड़े ब्रांड अखबार भी आपसी प्रतिस्पर्धा में खर्चीले प्रोडक्शन कास्ट की भरपाई के लिए फर्जी (खूब बढ़ा हुआ) प्रसार और संस्करण पेश करते हैं। मसलन शहर में टाप फोर अखबारों का वास्तविक प्रसार पन्द्रह से तीस हजार है जबकि ये एक संस्करण का प्रसार एक लाख से बहुत ऊपर शो करते हैं।

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एक राज्य में यदि किसी बड़े अखबार के 10-12 संस्करण हैं और पांच राज्यों से ये राष्ट्रीय अखबार प्रकाशित होता है तो अखबार के कुल 50-60 संस्करण प्रकाशित होते हैं। इसमें आधा से ज्यादा संस्करण फर्जी तौर से शो किये जाते हैं। यदि देशभर के 50-60 संस्करणों के लिए 5-6 लाख अखबार की प्रतियां छपती हैं तो50- 60 लाख प्रसार शो किया जाता हैं। क्योंकि मल्टी एडीशन के कुल प्रसार से ही आईएनएस और कार्पोरेट विज्ञापन दाता अखबार की वैल्यू और उसके कामर्शियल रेट को तौल कर विज्ञापन देने का फैसला करते हैं। इसलिए सरकारी से ज्यादा कामर्शियल (प्राइवेट) विज्ञापनों के लिये मल्टी एडीशन का कम से कम 30-40 लाख प्रसार शो करना ही पड़ता है। अखबारी कागज पर जीएसटी लागू होने के बाद तीन को तेईस दिखाना संभव नहीं है।

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यदि कोई अखबार 28 पेज का है और अपने आल एडीशन का प्रसार 50 लाख शो कर रहा है और वास्तविक तौर से 5 लाख ही छाप रहा है तो उसे 28 पेज के 50 लाख अखबार के कागज की खरीद पर जीएसटी का हिसाब देना होगा। यानी रोज जिस कथित करोड़ों रूपये के कागज की खपत हो रही है उसका जीएसटी का हिसाब कैसे देंगे? मतलब ये कि 5 लाख अखबार के लिए खरीदे गये कागज का हिसाब तो दिया जा सकता है लेकिन 50 लाख अखबार के लिए जब कागज खरीदा ही नहीं तो उसका जीएसटी कैसे शो करेंगे? यही कारण है कि बड़े ब्रांड अखबारों को अपना वास्तविक प्रसार शो करने के बाद अपनी लागत का खर्च निकालना भी मुश्किल हो जायेगा। आई एन एस के मानक पूरे ना होने के कारण सरकारी ही नहीं गैर सरकारी कामर्शियल विज्ञापन भी आधे से भी कम हो जायेंगे।

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यही कारण है कि बड़े अखबार अपने एडीशन बंद कर रहे हैं। अपना खर्च आधे से भी कम कर लेंगे। इनका लक्ष्य है कि आधे से भी अधिक स्टाफ खासकर पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये। बताया जाता है कि देश के तमाम नामचीन अखबारों ने जीएसटी की मार के कारण अपने-अपने संपादकीय विभाग पर कास्ट कटिंग की कैची चलाने का फैसला कर लिया है। जिनका कॉन्ट्रैक्ट समाप्त हो रहा है उनका रिनीवल नहीं किया जायेगा।

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अब बताइये बड़े-बड़े अखबारों के बड़े-बड़े पत्रकार कहां जायेंगे ! बर्फ बेचने वाले जो छोटे अखबारों से मान्यता प्राप्त पत्रकार बन गये थे ये तो फिर अपने बर्फ बेचने के धंधे में फिर पूरी तरह सक्रिय हो जायेंगे। लेकिन बड़े अखबारों से पैदल हुए प्रोफेशनल पत्रकारों को भी बेरोजगार होकर सड़क पर बर्फ या पकोड़े बेचना पड़ेंगे। साथ में पत्रकारिता के कीड़े शांत करने के लिए फ्री में फ्रीलांसर बन कर पत्रकारिता कर सकेंगे आज के बड़े-बड़े पत्रकार।

साभार: नवेद शिकोह (स्वामी नवेदानंद) की फेसबुक वाल से

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