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Up Kiran, Digital Desk: बिहार के बहुप्रतीक्षित विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान जल्द ही होने वाला है। राजनीतिक तापमान बढ़ चुका है, लेकिन सत्ता पक्ष यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भीतर भी यह सवाल कायम है कि चुनावी नैरेटिव का चेहरा कौन होगा। संख्यात्मक दृष्टि से राजधानी दिल्ली से लेकर पटना तक यह साफ है कि भाजपा अब राज्य राजनीति में "बड़े भाई" की स्थिति में है। बावजूद इसके, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत भाजपा नेतृत्व ने मौजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर ही भरोसा जताकर यह संदेश दिया है कि अभी वे ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
गठबंधन गणित और भाजपा की मजबूती
243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में बीजेपी के आज 78 विधायक हैं, जबकि जेडी-यू के पास मात्र 43 सीटें बची हैं। 2020 में भाजपा ने 74 सीटें जीतकर रिकॉर्ड प्रदर्शन किया था और बाद में सहयोगी दल वीआईपी के विधायकों के शामिल होने से उनकी ताक़त और बढ़ी। इसके बावजूद, भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को सौंपे रखा। अबकी बार भी पार्टी ऐसा ही करने जा रही है। वजह यह नहीं कि भाजपा के पास विकल्प नहीं है, बल्कि नीतीश के पास वह सामाजिक समीकरणों की पकड़ है, जो अभी भी किसी अन्य नेता के पास नहीं।
जातीय समीकरणों में नीतीश की पकड़
बिहार का राजनीति समीकरण सदियों से जातीय आधार पर खिंचता रहा है।
ईबीसी वर्ग : कुल 36%।
दलित जनसंख्या : लगभग 20%।
ओबीसी : 27%, जिनमें यादवों का झुकाव परंपरागत रूप से राजद की ओर है।
कुर्मी (नीतीश की जाति) : 2.87%।
सवर्ण : 15.52%।
मुस्लिम समुदाय : 17.7% (अधिकांश राजद समर्थक)।
नीतीश कुमार का सबसे बड़ा आधार गैर-यादव ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग, दलित और महिलाओं का वोट-बैंक है। यही वजह है कि विश्लेषक कहते हैं कि भले ही जेडी-यू का वोट शेयर लगातार सिकुड़ रहा हो, लेकिन नीतीश का व्यक्तिगत नेटवर्क हर पंचायत और हर गांव तक बना हुआ है। यह “नॉन-वोकल वोटबैंक” भाजपा के लिए सत्ता की गारंटी है।
भाजपा की नेतृत्व समस्या
बिहार भाजपा लंबे समय से अपने दम पर एक करिश्माई चेहरा तलाशती रही है। 2005 के बाद से पार्टी का कोई भी नेता राज्यस्तरीय चुनावों में "मुख्य चेहरा" नहीं बन सका। सुशील कुमार मोदी, जो भाजपा के सबसे अनुभवी चेहरे थे, उनके निधन (2024) के बाद यह खालीपन और गहरा हो गया। यही वजह है कि भाजपा मजबूरी में नहीं, बल्कि मजबूती के बावजूद नीतीश के करिश्मे पर दांव खेल रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा चाहे तो अगले पांच वर्षों में राज्य में अपना सीएम चेहरा तैयार कर सकती है, लेकिन फिलहाल नीतीश के बिना एनडीए का राजनीतिक समीकरण अधूरा है।
भाजपा नेताओं का संदेश
नीतीश को लेकर अक्सर उठते सवालों का भाजपा नेता देवेश कांत सिंह ने स्पष्ट जवाब दिया। उन्होंने कहा कि सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने नीतीश को एनडीए का चेहरा बनाया था, बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस पर मुहर लगाई। "2025 का चुनाव भी एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ेगा," सिंह ने दोहराया।
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि 2020 में सीटों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद भाजपा ने सीएम की कुर्सी जेडी-यू को दी थी। यही परंपरा 2025 में भी कायम रहेगी।
एनडीए का प्रदर्शन : 20 साल का उतार-चढ़ाव
2005 : जेडी-यू 88, भाजपा 55 सीटों के साथ सत्ता में।
2010 : सबसे मजबूत प्रदर्शन – जेडी-यू 115, भाजपा 91।
2015 : नीतीश महागठबंधन में गए, भाजपा सिर्फ 53 तक सिमटी।
2020 : भाजपा 74 और जेडी-यू 43 सीटें, एनडीए की वापसी लेकिन बदला समीकरण।
क्यों जरूरी हैं नीतीश?
भले ही विपक्ष लगातार उन्हें "यू-टर्न बाबू" कहकर घेरता है, लेकिन चुनावी अंकगणित की कसौटी पर नीतीश एकमात्र ऐसे नेता हैं जो अपनी स्थिरता और सामाजिक इंजीनियरिंग के दम पर एनडीए का परचम बुलंद कर सकते हैं। भाजपा के पास लोकप्रियता की ऊँचाई और संसाधनों की ताक़त भले हो, मगर राजनीति को वोट में बदलने के लिए नीतीश की ज़मीन-स्तरीय पकड़ अनिवार्य है।
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