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Up Kiran, Digital Desk: दिल्ली की राजनीति में इन दिनों संविधान संशोधन विधेयक की जांच को लेकर प्रस्तावित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) पर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस पहले ही इस समिति से दूरी बना चुकी है और अब खबर है कि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी भी उसी रास्ते पर जा सकती है।

सपा पर संशय, टीएमसी ने साफ किया रुख

समाजवादी पार्टी ने अब तक औपचारिक रूप से यह पुष्टि नहीं की है कि वह समिति में हिस्सा लेगी या नहीं। लेकिन पार्टी सूत्रों के हवाले से समाचार एजेंसी पीटीआई ने बताया कि सपा ने किसी सदस्य को नामित न करने का मन बना लिया है। दिलचस्प यह है कि टीएमसी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद डेरेक ओ’ब्रायन पहले ही अपने ब्लॉग पोस्ट में लिख चुके हैं कि सपा इस समिति का हिस्सा नहीं बनेगी।

ओ’ब्रायन का कहना है कि तृणमूल और सपा दोनों ने मिलकर जेपीसी को "तमाशा" करार दिया है और इसलिए इसमें कोई भागीदारी नहीं करना चाहते।

ओ’ब्रायन का तर्क

टीएमसी सांसद की आलोचना सीधे तौर पर भाजपा नीत एनडीए सरकार की ओर इशारा करती है। उन्होंने लिखा कि जेपीसी के गठन की प्रक्रिया शुरुआत से ही सत्तारूढ़ दल के पक्ष में होती है। समिति का अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति तय करते हैं तथा सदस्य विभिन्न दलों की संख्या के अनुपात में चुने जाते हैं। इसके चलते समिति की संरचना स्वाभाविक रूप से सरकार के बहुमत के पक्ष में झुकी रहती है।

ओ’ब्रायन ने यह भी कहा कि हर बार अंतिम रिपोर्ट पर आम सहमति बनना लगभग नामुमकिन होता है। उनकी दलील है कि सत्ता पक्ष अपने संख्या बल का इस्तेमाल करके विपक्षी सांसदों के संशोधनों को महज हाथ उठाकर खारिज कर देता है। नतीजतन, विपक्ष के पास केवल “असहमति का नोट” दर्ज कराने का विकल्प ही बचता है।

लोकतांत्रिक संस्था पर सवाल

राज्यसभा सांसद ने याद दिलाया कि जेपीसी शुरू में एक लोकतांत्रिक और जवाबदेह तंत्र के तौर पर बनी थी, जिसका मकसद पारदर्शिता बनाए रखना था। लोकसभा और राज्यसभा के प्रस्तावों से बनी इस व्यवस्था से उम्मीद थी कि यह जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करेगी। लेकिन, उनका कहना है कि 2014 के बाद से इसका स्वरूप बदल गया है और सरकार ने इसे अपने मनमुताबिक ढाल लिया है।

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