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Up Kiran, Digital Desk: बिहार में चुनावी मौसम फिर से गरमाया है, और जैसे-जैसे चुनाव की गतिविधियाँ बढ़ती हैं, चर्चा का सबसे गर्म मुद्दा चुनावी फंडिंग बन गया है। राजनीतिक पार्टियों के पास यह विशाल रकम आखिर कहां से आती है, और कैसे ये पैसे टैक्स के जाल से बचते हुए कानूनी रूप से सफेद हो जाते हैं? अक्सर यह सवाल उठता है, क्योंकि अधिकांश चुनावी फंडिंग काले धन से होती है, जिसे विभिन्न कानूनी प्रक्रियाओं से सफेद बना लिया जाता है। आइए समझते हैं कि यह गुप्त वित्तीय नेटवर्क किस तरह काम करता है।

आयकर अधिनियम का फायदा उठाकर काले धन को सफेद बनाना

भारत में राजनीतिक पार्टियों को आयकर अधिनियम की धारा 13A के तहत विशेष कर छूट प्राप्त है। इसके तहत, पार्टियाँ यदि निर्धारित नियमों के अनुसार चंदा प्राप्त करती हैं और उसका सही हिसाब रखती हैं, तो उन्हें इस पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दल, बड़ी रकम को सही तरीके से सफेद बना सकते हैं। इस प्रक्रिया में एक और महत्वपूर्ण बात है कि पार्टियाँ 20,000 रुपये तक के नकद चंदे के लिए दानदाता का नाम नहीं बतातीं। यानी कि 19,999 रुपये तक के दान के लिए दानदाता की पहचान छिपाई जाती है, जिससे यह काला धन सफेद बनकर सिस्टम से बाहर निकल आता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड: पारदर्शिता की कमी

2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम लागू की, जिसके तहत लोग बैंक से बॉन्ड खरीदकर पार्टियों को दान दे सकते हैं। इस स्कीम में दानदाता की पहचान पूरी तरह से गुप्त रहती है। हालांकि, आलोचकों का मानना है कि इससे पारदर्शिता में कोई खास सुधार नहीं हुआ। दान देने वालों की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती, जिससे राजनीतिक फंडिंग में पूरी तरह से पारदर्शिता की कमी बनी रहती है।

टैक्स नियम और पार्टियों का खेल

राजनीतिक दलों को तब ही टैक्स का भुगतान करना पड़ता है जब वे निर्धारित नियमों का पालन नहीं करते। यदि पार्टियाँ आय और व्यय का पूरा विवरण चुनाव आयोग और आयकर विभाग को नहीं देतीं, तो उन्हें टैक्स देना पड़ता है। इसके बावजूद, राजनीतिक दल हमेशा अपनी फंडिंग को पारदर्शी बनाने की बजाय, टैक्स से बचने के रास्ते तलाशते रहते हैं।

चुनावी प्रक्रिया पर असर

राजनीतिक पार्टियों का यह तरीका न केवल करदाता के पैसे की पारदर्शिता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह चुनावी प्रक्रिया में जनता का विश्वास भी कमजोर करता है। जब पार्टियाँ अपनी फंडिंग को छिपाती हैं और टैक्स से बचने के रास्ते अपनाती हैं, तो यह लोकतंत्र की ईमानदारी पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है।