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Up Kiran, Digital Desk: अक्सर जब जिंदगी हम पर कोई पहाड़ जैसा दुःख डालती है, तो ज्यादातर लोग टूट जाते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो उस पहाड़ को ही तोड़कर अपना रास्ता बना लेते हैं। ऐसी ही एक जीती-जागती मिसाल हैं जर्मनी के पैरालिंपियन हेनरिख पोपोव।
यह कहानी सिर्फ एक एथलीट की नहीं, बल्कि उस जिद, जुनून और कभी न हार मानने वाले जज्बे की है जो नामुमकिन को भी मुमकिन बना देता है।
9 साल की उम्र और वो मनहूस :हेनरिख का जीवन 9 साल की उम्र में हमेशा के लिए बदल गया। उन्हें हड्डियों का एक खतरनाक कैंसर हुआ, और उनकी जान बचाने के लिए डॉक्टरों को उनका एक पैर काटना पड़ा। सोचिए, एक बच्चा जो बस अभी दुनिया को समझना शुरू ही कर रहा था, उसके लिए यह कितना बड़ा सदमा होगा। वह महीनों तक अस्पताल में रहे और उन्होंने बहुत दर्द सहा।
उस वक्त शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह लड़का एक दिन दुनिया का सबसे तेज धावक बनेगा।
जब दौड़ना ही बन गया जिंदगी का मकसद
अस्पताल से निकलने के बाद, हेनरिख को नकली पैर (प्रोस्थेटिक लेग) के सहारे जीना सीखना था। लेकिन उन्होंने इसे अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि अपनी ताकत बना लिया। वह न सिर्फ चलना सीखे, बल्कि उन्होंने दौड़ने का सपना देखना शुरू कर दिया।
उन्होंने स्प्रिंट रेसिंग (तेज दौड़) में अपनी ट्रेनिंग शुरू की। यह सफर आसान नहीं था। उन्हें कई बार दर्द हुआ, वह कई बार गिरे, लेकिन उनका हौसला कभी नहीं गिरा। वह हर सुबह उठते और पहले से ज्यादा मेहनत करते। उनकी एक ही जिद थी - मुझे दुनिया को दिखाना है कि मैं कमजोर नहीं हूँ।
और फिर दुनिया ने देखा पोपोव का कमाल!
उनकी यह मेहनत रंग लाई। हेनरिख पोपोव ने पैरालिंपिक खेलों में वो कर दिखाया जो किसी चमत्कार से कम नहीं था:
उन्होंने अपने करियर में कई वर्ल्ड चैंपियनशिप और यूरोपियन चैंपियनशिप में भी ढेरों मेडल जीते और खुद को पैरालिंपिक इतिहास के सबसे महान एथलीटों में से एक के रूप में स्थापित किया।
सिर्फ एक चैंपियन नहीं, एक प्रेरणा: आज हेनरिख पोपोव सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं हैं, बल्कि वे उन लाखों-करोड़ों लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं जो जिंदगी में किसी न किसी कमी या मुसीबत से लड़ रहे हैं। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि हमारी असली विकलांगता हमारे शरीर में नहीं, बल्कि हमारी सोच में होती है।
उन्होंने यह साबित कर दिया कि अगर आपके अंदर कुछ करने का जज्बा है, तो कोई भी मुश्किल आपको रोक नहीं सकती। आपका एक पैर हो या दो, इससे फर्क नहीं पड़ता; फर्क इस बात से पड़ता है कि आपके सपनों में कितनी जान है।