
Up Kiran, Digital Desk: आजकल एक बहस छिड़ी हुई है कि भारत, रूस से सस्ता तेल खरीदकर अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों को धोखा दे रहा है। ये बातें अमेरिका के पूर्व ट्रेड एडवाइजर पीटर नवारो के कुछ बयानों के बाद शुरू हुईं। उनका कहना है कि भारत, रूस से कच्चा तेल खरीदकर, उसे रिफाइन करके यूरोप और अमेरिका को ही बेच रहा है और इस तरह मुनाफा कमा रहा है। पहली नजर में यह बात बहुत गंभीर लगती है, लेकिन जब हम गहराई में जाते हैं, तो सच्चाई कुछ और ही निकलकर सामने आती है।
सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि भारत ऐसा कोई नियम नहीं तोड़ रहा है। जब किसी देश से कच्चा तेल खरीदकर उसे किसी दूसरे देश में रिफाइन किया जाता है, यानी पेट्रोल, डीज़ल या दूसरे प्रोडक्ट्स में बदला जाता है, तो कानून के हिसाब से वह तेल उसी देश का प्रोडक्ट बन जाता है जहाँ उसे रिफाइन किया गया।
इसे "रूल ऑफ़ ओरिजिन" कहते हैं। तो, जब भारत रूस से कच्चा तेल लेकर उसे अपने यहाँ रिफाइन करता है, तो वो तेल "मेड इन इंडिया" प्रोडक्ट बन जाता है। इसके बाद भारत उसे किसी भी देश को बेच सकता है, और यह पूरी तरह से कानूनी है।
दूसरी बड़ी बात यह है कि अमेरिका और यूरोप ने खुद कभी भी भारत को रूस से तेल खरीदने के लिए मना नहीं किया। बल्कि, वे चाहते थे कि रूस का तेल बाजार में बना रहे ताकि दुनिया भर में तेल की कीमतें अचानक से आसमान पर न पहुँच जाएं। उनकी शर्त बस इतनी थी कि कोई भी देश रूसी तेल को 60 डॉलर प्रति बैरल से ज़्यादा कीमत पर न खरीदे। भारत ने हमेशा इस प्राइस कैप का सम्मान किया है।
अब सवाल उठता है कि अगर सब कुछ नियमों के हिसाब से हो रहा है, तो फिर पीटर नवारो जैसे लोग ऐसे आरोप क्यों लगा रहे हैं? दरअसल, इसके पीछे अमेरिका की अपनी घरेलू राजनीति हो सकती है। वहां जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, और ऐसे में अक्सर इस तरह के मुद्दे उठाए जाते हैं ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके।
सच तो यह है कि भारत अपने देश की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए रूस से तेल खरीद रहा है, और यह दुनिया की इकोनॉमी के लिए भी अच्छा है। अगर भारत ऐसा नहीं करता, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की मांग बढ़ जाती और कीमतें आसमान छूने लगतीं, जिसका असर अमेरिका समेत पूरी दुनिया पर पड़ता। इसलिए, अगली बार जब आप ऐसी कोई खबर पढ़ें, तो यह जानना ज़रूरी है कि पूरा मामला उतना सीधा नहीं है जितना दिखाया जाता है।
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