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Up Kiran, Digital Desk: अगर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप फिर से सत्ता में आते हैं, तो वैश्विक ऊर्जा बाजार में एक बड़ा भूचाल आ सकता है, जिसका सीधा असर भारत और चीन जैसे देशों पर पड़ेगा। ट्रंप ने संकेत दिया है कि वह रूस के तेल पर टैरिफ (आयात शुल्क) लगा सकते हैं, खासकर उन देशों पर जो भारी मात्रा में रूसी तेल खरीद रहे हैं। उनकी इस नीति को '500 बिलियन डॉलर' का एक आर्थिक 'शॉकवेव' कहा जा रहा है, जिसका उद्देश्य रूस को यूक्रेन युद्ध के लिए मिलने वाले राजस्व को बंद करना है।

ट्रंप की रणनीति क्या है?

ट्रंप का मानना है कि जो देश रूस से तेल खरीदकर उसकी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं, वे अप्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन के खिलाफ उसके युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहे हैं। अपनी पिछली टिप्पणी में, ट्रंप ने स्पष्ट किया था कि वह सत्ता में लौटने पर उन देशों को लक्षित करेंगे जो रूस के साथ व्यापार करते हैं। उनका सीधा संदेश है कि 'हम रूस के पास पैसा नहीं जाने देंगे।'

यह नीति मौजूदा पश्चिमी प्रतिबंधों से काफी अलग होगी। जहां जी7 देशों ने रूसी तेल पर 'प्राइस कैप' (मूल्य सीमा) लगाई है, वहीं ट्रंप का विचार सीधे तौर पर उन देशों पर टैरिफ लगाना है जो इस तेल को खरीद रहे हैं। यह एक अधिक आक्रामक कदम होगा जिसका लक्ष्य रूस को उसके सबसे बड़े राजस्व स्रोत से वंचित करना है।

भारत और चीन पर क्या होगा असर?

रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से, भारत और चीन रूस के सबसे बड़े तेल खरीदार बनकर उभरे हैं। पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद रूस को अपने तेल के लिए नए बाजार खोजने पड़े, और उसने भारत और चीन को रियायती दरों पर तेल बेचना शुरू कर दिया। भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए रूसी तेल एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है, जिससे देश को लागत प्रभावी ऊर्जा मिलती है।

अगर ट्रंप अपनी टैरिफ नीति लागू करते हैं, तो भारत और चीन को अरबों डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ सकता है। यह न केवल उनके आयात बिल को बढ़ाएगा बल्कि उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर भी भारी दबाव डालेगा। विश्लेषकों का मानना है कि यह नीति इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को "पंगु" कर सकती है।

वैश्विक ऊर्जा बाजार पर प्रभाव:

ट्रंप की यह नीति वैश्विक ऊर्जा बाजार में बड़े पैमाने पर अनिश्चितता पैदा कर सकती है। यह तेल की कीमतों में अस्थिरता ला सकती है और आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर सकती है। इसके अलावा, यह भू-राजनीतिक समीकरणों को भी बदल सकता है, क्योंकि भारत और चीन जैसे देशों को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए नए विकल्प तलाशने पड़ सकते हैं या अमेरिकी दबाव का सामना करना पड़ सकता है।

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