img

Up Kiran, Digital Desk: यह सिर्फ चार अक्षरों का एक शब्द नहीं है। यह एक एहसास है, एक पनाहगाह है, एक ऐसी जगह जहाँ हम दुनिया के हर तूफान से लड़कर सुकून पाने लौटते हैं। लेकिन क्या हो, अगर यही घर आपकी सबसे बड़ी घुटन बन जाए? क्या हो, अगर घर की चारदीवारी आपको बाहरी दुनिया से ज़्यादा क़ैदी महसूस कराए? डायरेक्टर नीरज घेवन की नई फिल्म 'होमबाउंड' इन्हीं चुभने वाले सवालों की एक असहज और ख़ूबसूरत कहानी है।

कहानी, जो आपकी आत्मा में उतर जाएगी

'मसान' जैसी क्लासिक फिल्म बनाने वाले नीरज घेवन एक बार फिर हमें भारत के उस दिल में ले जाते हैं, जहाँ बातें कम और ख़ामोशी ज़्यादा शोर करती है। यह कहानी है शहर की चकाचौंध में अपनी जड़ें भूल चुके एक नौजवान (ईशान खट्टर) की, जिसे हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि अनिच्छा से अपने पुराने, धूल भरे घर लौटना पड़ता है।

उसका लौटना सिर्फ एक जगह पर लौटना नहीं है, बल्कि उन अनकहे राज़ों, दबे हुए सदमों और अधूरे रिश्तों के बीच लौटना है, जिन्हें वो सालों पहले पीछे छोड़ आया था। घर में उसका सामना होता है अपनी ख़ामोश सी प्रेमिका (जाह्नवी कपूर) और उस दबंग भाई (विशाल जेठवा) से, जिसके साए से भी वह हमेशा भागता रहा। फिल्म की कहानी इन्हीं तीन किरदारों के आपसी टकराव और अंदरूनी घुटन के इर्द-गिर्द घूमती है, जहाँ घर का हर कोना एक बीती हुई याद का बोझ उठाए खड़ा है।

वो एक्टिंग, जो किरदारों को ज़िंदा कर दे

डायरेक्टर का कमाल: नीरज घेवन का कमाल यही है कि वह कोई बड़ी-बड़ी घटनाएं नहीं दिखाते। उनका कैमरा किरदारों के मन के अंदर झाँकता है। घर की दीवारों की सीलन, दरवाज़ों की चरमराहट और किरदारों के बीच की ख़ामोशी भी इस फिल्म का एक अहम किरदार है। यह फिल्म धीमी है, लेकिन बोझिल नहीं। यह आपको धीरे-धीरे अपनी दुनिया में खींचती है और फिर आपको सोचने पर मजबूर कर देती है।

आखिरी शब्द: 'होमबाउंड' कोई हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म नहीं है। यह एक ऐसा अनुभव है, जो शायद आपको थोड़ा परेशान करे, थोड़ा बेचैन करे, लेकिन अंत में यह आपको एक ऐसा आइना दिखा जाएगी, जिसमें कहीं न कहीं हम सभी अपना एक हिस्सा देख सकते हैं। यह फिल्म आपको एक ऐसे सफ़र पर ले जाती है, जहाँ घर पहुँचने पर शायद सुकून न मिले, पर खुद को समझने का एक मौका ज़रूर मिलता है।