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Up Kiran, Digital Desk: "जब पहली बार मां बनने की खबर मिली, तो चारों ओर से बधाई की जगह सलाहों की झड़ी लग गई। जैसे ही लोगों को पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं, उनके चेहरे पर मुस्कान कम और सुझाव ज्यादा थे 'अब तो नौकरी छोड़ ही दो', 'बच्चा संभालो, करियर बाद में भी हो जाएगा', 'मातृत्व का मतलब त्याग होता है, सिर्फ ऑफिस की चकाचौंध नहीं'।"
ये वो बातें हैं जो एक कामकाजी महिला मां बनने के बाद हर रोज़ सुनती है। और जब मैंने छह महीने की मैटरनिटी लीव के बाद फिर से दफ्तर का रुख किया, तो लगा जैसे दोबारा किसी परीक्षा में बैठी हूं।
तुम्हें तो अब जल्दी निकलना पड़ेगा न
दफ्तर में वापसी के पहले दिन ही किसी ने मजाक में पूछा, "मीटिंग में बैठ पाओगी न अब?" किसी और ने टोका, "इतनी लंबी छुट्टी ली है, सब भूल तो नहीं गई होंगी?" उस वक्त मेरी आंखों में सिर्फ मेरा बेटा था, जिसे घर पर छोड़ आई थी। उसकी आंखों में जो मूक सवाल था – "मम्मा, मत जाओ" वो हर घंटे मेरी ममता को कचोटता रहा।
मगर मुझे लौटना था। सिर्फ अपने लिए नहीं, उस बेटे के लिए भी, जिसे मैं एक बेहतर ज़िंदगी देना चाहती हूं।
‘हीरो मम्मी’... हां, क्यों नहीं?
जिस शरीर ने नौ महीने एक जीवन को अपने भीतर पाला, उसे लेकर भी लोगों ने कमेंट पास करने से परहेज़ नहीं किया। "तुम्हें देखकर लगता ही नहीं कि बच्चा हुआ है!" "इतनी जल्दी फिट कैसे हो गई?" "कोई स्पेशल क्रीम लगाती हो क्या?"
क्या फर्क पड़ता है? अगर एक मां खुद को संभालती है, तो ये तारीफ है या ताना।
आंसुओं से आत्मबल तक का सफर
शुरुआत में इन सवालों ने मुझे तोड़ दिया था। अक्सर अकेले में रोती थी, खुद से सवाल करती थी – "क्या मैंने कुछ गलत किया?" मगर फिर खुद को समझाया – मां होना किसी को खुश करने की प्रतियोगिता नहीं है। यह एक ज़िम्मेदारी है अपने बच्चे की, अपने सपनों की और खुद की भी।
अब मैं जानती हूं, मातृत्व त्याग का नाम नहीं है, बल्कि वह शक्ति है जो खुद को और दुनिया को बेहतर बना सकती है।
हम सबकी कहानी है ये
हर कामकाजी मां की ज़िंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं, जहां उसे समाज, परिवार, और दफ्तर – तीनों से सवालों का सामना करना पड़ता है। मगर इन सवालों के जवाब देने की ज़रूरत नहीं है, अगर आपके भीतर भरोसा हो। क्योंकि एक मां जो खुद को नहीं भूली, वही अपने बच्चे को भी दुनिया का सामना करना सिखा सकती है।
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