स्वराज्य पार्टी और सुभाष चन्द्र बोस के लगातार तेजी से बढ़ते प्रभाव को ब्रिटिश सरकार अपने लिए खतरा मानती थी। अंग्रेज सरकार स्वराज्य पार्टी को कमजोर करने पर तुली हुई थी। कार्यकारी अध्यक्ष के रुप में सुभाष द्वारा किये गये कार्यों ने इस पार्टी की लोकप्रियता और बढ़ा दी थी। इसके साथ ही सुभाष चंद्र की बढ़ती हुई ख्याति ने भी सरकार की नींद उड़ा राखी थी। राज पार्टी को कमजोर करने के लिए ब्रिटिश सरकार देशबन्धु और सुभाष को अलग करने की रणनीति पर काम कर रही थी।
रणनीति के तहत 25 अक्टूबर 1924 की सुबह सुभाष चन्द्र बोस को कलकत्ता पुलिस कमीशनर ने तलब किया और उन्हें बताया की 1818 के कानून की धारा 3 के तहत उनकी गिरफ्तारी का वारंट है। बोस के साथ ही दो अन्य स्वराज्यवादी सदस्यों को भी गिरफ्तार किया गया। इसके साथ ही और भी बहुत गिरफ्तारिया की गयी। सरकार ने सफाई दी की एक क्रान्तिकारी षड़यन्त्र की योजना बनायी जा रही है जिसके तहत ये गिरफ्तारियाँ की जा रही है। दो अंग्रेजी अखबारों ने आरोप लगाया कि क्रान्तिकारी षड़यन्त्र के पीछे बोस का दिमाग है। सुभाष ने इन अखबारों पर मानहानि का केस कर दिया। सरकार और उसके नियंत्रण में चलने वाली ये अखबार अपने आरोपों के पक्ष में कोई तथ्य पेश नहीं कर सके, इसके बावजूद बगैर मुकदमा चलाये सुभाष के साथ बंगाल केअनेक नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
सुभाष चन्द्र बोस को कुछ सप्ताह के लिये अपने शासकीय कार्यों को संपन्न करने का समय दिया गया, लेकिन उनके साथ दो पुलिस अधिकारियों को भी नियुक्त कर दिया गया। सभी कार्यों के संपन्न होते ही ब्रिटिश सरकार ने सुभाष को निर्वासित जीवन व्यतीत करने के लिये मांडले जेल (रंगून) भेज दिया। कारागार की खराब परिस्थितियों तथा जलवायु के कारण वह अस्वस्थ हो गए।
सुभाष ने ब्रिटिश सरकार की ये शर्त मानने से इंकार कर दिया और कहा कि वो अपने जीवन से भी ज्यादा अपने सम्मान से प्यार करते हैं। वो किसी ऐसे अधिकारों के साथ कोई सौदा नहीं कर सकते जो आने वाले समय की कूटनीति का आधार बनने वाले हैं। इधर भारत में बढ़ते आक्रोश से डरकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखने का आदेश दिया। मई 1927 को डायमंड हार्बर पर उनकी मेडिकल जांच हुई, जिसमें इनके अस्वस्थ्य होने की पुष्टि की गयी। इसके बाद इन्हें अगली सुबह रिहा कर दिया गया।