बरसाने की लट्ठामार होली

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सनातन परंपरा में होली का त्योहार होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है, लेकिन बृज में होली की शुरुआत एक सप्ताह पूर्व ही हो जाता है। बृज में इसका प्रारंभ फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को लड्डू होली से होता है। इसके अगले दिन अर्थात फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को लट्ठामार होली खेली जाती है। नंदगांव के हुरयारे लट्ठामार होली खेलने के लिए बरसाना की हुरयारियों के पास आते हैं। बरसाना की लट्ठामार होली पुर विश्व में लोकप्रिय है। आइये जानते हैं कि लट्ठामार होली की शुरुआत कब और कैसे हुई थी?

पौराणिक एवं लोक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण अपनी मित्र मंडली के साथ बरसाना में होली खेलने जाते थे। इस दौरान वो राधा व उनकी सखियों से हंसी ठिठोली करते थे तो राधा व उनकी सखियां नन्दलाल और उनकी टोली (हुरियारे) पर प्रेम भरी लाठियां बरसाती थीं। उसी समय से बरसाने में लट्ठामार होली की परंपरा शुरू हो गई और हर साल बरसाना से नंदगांव को होली का निमंत्रण दिया जाने लगा। यह परंपरा आज भी कायम है।

 

आज भी बरसाना से होली का निमंत्रण मिलने के बाद नंदगांव के हुरयारे अगले दिन फाल्गुन शुक्ल नवमी को सुबह से ही लट्ठामार होली की तैयारी करने लगते हैं। रंग, गुलाल और ढाल लेकर टोलियों में वे बरसाना पहुंचते हैं। बरसाने में उनके स्वागत में हुरयारियों की टोली खड़ी होती है। नंदगांव के हुरयारे बरसाना की हुरयारियों को छेड़ते हैं और फिर वे उन पर लट्ठ बरसाती हैं। हुरयारे ढाल से अपनी सुरक्षा करते हैं। लट्ठामार होली प्रेम से परिपूर्ण होती है, जो राधा और कृष्ण के प्रेम का परिचायक भी है।

लट्ठामार होली के दिन हुरयारे और हुरयारियों के बीच गीत-संगीत की प्रतियोगिताएं भी होती हैं। हुरयारे के गीतों का हुरयारियां अपने गीतों से जवाब देती हैं। ये परंपरा अनूठी होने के साथ ही सनातन संस्कृति की जीवंतता का भी प्रतीक है।

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