corona: 100 साल बाद महामारी, लोग हैं कि मानते नहीं…

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कोरोना ने तमाम विकास और दावों, खासकर स्वास्थ्य को लेकर पूरी दुनिया की कलई खोलकर रख दी। 21 वीं सदी में यह लाचारी और बेबसी नहीं तो और क्या है जो महज 0.85 एटोग्राम यानी 0.00000000000000000085 ग्राम के कोरोना के एक कण, जिसे केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप विश्लेषण तकनीक से ही देखा जा सकता है, उसने ऐसा तूफान मचाया कि पूरी मानव सभ्यता पर भारी पड़ गया।

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इस बेहद अतिसूक्ष्म वायरस से कब मुक्ति मिलेगी, कोई नहीं जानता। अलबत्ता करोड़ों को गिरफ्त में लेने वाले कोरोना के वजन की बात करें तो 3 मिलियन यानी 30 लाख लोगों में मौजूद वायरस का कुल वजन केवल 1.5 ग्राम होगा। इससे, इसकी भयावहता का केवल अंदाज लगाया जा सकता है। बेहद हल्के और अति सूक्ष्म वायरस से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 5,800 अरब से 8,800 अरब डॉलर तक के नुकसान की आशंका है।

इस संबंध में एशियाई विकास बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के साथ-साथ केवल दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर 142 अरब से 218 अरब डॉलर तक असर होगा। यह बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी जो झलक रही है। लेकिन सवाल वही कि दुनिया के विकास के दावे कितने सच, कितने झूठ?

इसमें दो राय नहीं कि स्वास्थ्य को लेकर मानव सभ्यता 21 वीं सदी में भी बहुत पीछे है। दवाई से ज्यादा बचाव का सदियों पुराना तरीका और दादी के नुस्खे कोरोना काल में भी कारगर होते दिख रहे हैं। मतलब स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के सामने गंभीर चुनौतियाँ बरकरार हैं और इनसे बहुत कुछ सीखने, जानने और समझने के साथ यह भी शोध का विषय है कि आखिर हर 100 साल बाद ही महामारी नए रूप में क्यों आती है?

हालात बताते हैं कि पुरानी महामारियों की तरह कोरोना जल्द जाएगा नहीं। सवाल यही है कि यह काबू में कैसे आएगा? स्वास्थ्य को लेकर औसतन देश भर में हालात बेहद खराब हैं। मरीजों को कहीं ऑक्सीजन, कहीं बिस्तर, कहीं आईसीयू की कमी का सामना करना पड़ रहा है तो कहीं चिकित्सकों की बेरुखी तो कहीं ऑक्सीजन जैसी प्राणवायु की कालाबाजारी से दो चार होना पड़ रहा है।

दवा के नाम पर जानी-पहचानी साधारण गोलियाँ भी कोरोना युध्द में आड़े है क्योंकि इससे लोगों में खासा भ्रम भी फैल रहा है। वहीं क्षमता से कई-कई गुना ज्यादा मरीज एक ही अस्पताल में पहुंचाया जाना और वहाँ उन्हें लिए जाने की मजबूरी से सुविधाओं की गुणवत्ता में कमी आना स्वाभाविक है। सरकारों ने भी नहीं सोचा होगा कि पूरी दुनिया में कभी अचानक ऐसे हालात बन सकते हैं! इसके लिए कोई तैयार नहीं था।

कहते हैं इतिहास अपने आपको दोहराता है। कुछ इसी तर्ज पर पूरी की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था पुरानी महामारियों के दौर जैसे ही हैं। इलाज का सही तरीका न तब था और न अब है। न पहले मालूम था कि मर्ज की सही दवा क्या है न अब। शायद इसीलिए लोगों में कोरोना का डर खत्म हो रहा है और कहने लगे हैं कि या तो कोरोना कुछ नहीं या बहुत कुछ! यही चिन्ता की बात है। लॉकडाउन ने दुनिया के अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी। दोबारा लॉकडाउन से अव्यव्थाओं की महामारी का सिलसिला चल पड़ेगा। ऐसे में कोरोना के साथ भी जीना है, कोरोना के बाद भी जीना है।

महामारी मानव सभ्यता के साथ शुरू हुई। इसपर सबसे ज्यादा ध्यान चौदहवीं सदी के 5वें और 6ठे दशक में फैले प्लेग के बाद खिंचना शुरू हुआ। इसे ब्लैक डेथ यानी ब्यूबोनिक प्लेग भी कहा गया। यूरोप में मौत की वो तबाही मची कि एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई। तब भी दवाओं की जानकारी के अभाव में बड़ी संख्या में मौतें हुईं।

प्लेग लंबे वक्त रहा। 1720 में मार्सिले प्लेग कहलाया जिससे फ्रान्स के छोटे-से शहर मार्सिले में ही सवा लाख से ज्यादा लोगों की जान चली गई और यही पूरी दुनिया में फैलकर वैश्विक महामारी बना। भारत में यह 1817 के आसपास ब्रिटिश सेना से फैलकर बंगाल तक पहुँचा और यहाँ से ब्रिटेन।

ईसा पूर्व के दौर की 41 महामारियों के प्रमाण हैं जबकि ईसा के समय से सन् 1500 तक 109 महामारियाँ हुईं। 1820 में एशियाई देशों में कॉलरा यानी हैजा ने दूसरी महामारी का रूप लिया। इसने जापान, अरब मुल्कों सहित भारत, बैंकॉक, मनीला, जावा, चीन और मॉरिशस तक को जकड़ में ले लिया। यह जहाँ-जहाँ फैला, लाखों मौतें हुईं। दवाओं की जानकारी की कमी और इलाज न पता होने से कॉलरा के कई-कई दौर चले। 1920 में महामारी का एक नया रूप स्पैनिश फ्लू बनकर आया। यह भी नई बीमारी थी।

न इलाज था न दवा थी, इससे संक्रमित होकर दुनिया में लगभग 2 से 5 करोड़ लोगों की जान चली गई। उसी तर्ज पर 2020 में महामारी का यह दौर फिर सामने है। अकेले भारत में 50 लाख लोग अबतक संक्रमित हो चुके हैं। रोज आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है। लगभग 80 हजार ज्ञात मौत हो चुकी है। हफ्ते भर से रोजाना लगभग एक लाख पहुंचते नए मरीजों की संख्या डराने वाली है। यहाँ भी बीमारी का पक्का इलाज नहीं होने से महज बचाव और साधारण नुस्खों से जूझने की मजबूरी है।

हर 100 साल की तरह इतिहास ने खुद को क्या दोहराया, कोरोना नयी महामारी बनकर सामने आया। हालात सैकड़ों बरस पहले जैसे ही हैं। न बीमारी की सही तासीर मालूम न ही कोई वैक्सीन या ठोस इलाज है। ऐसे में कोरोना के इलाज से ज्यादा उससे बचाव पर ध्यान केन्द्रित करना स्वाभाविक है। बीमारी से जीतने की खातिर दूसरी दवाओं, सेहतमंद खुराक से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर किसी तरह जंग जारी है।

यूँ तो दुनिया भर में कोरोना वैक्सीन के दर्जनों क्लीनिकल ट्रायल जारी हैं। कई जगह परीक्षण तीसरे चरण में है।अगले साल तक वैक्सीन बन भी गई तो आम लोगों तक पहुँचाने की प्रक्रिया भी कठिन होगी। दुनिया भर में 130 से ज्यादा टीकों पर शोध और प्रयोगों का दौर जारी है। रूसी टीका स्पूतनिक-वी से भारत को तमाम उम्मीदें हैं तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी व दवा निर्माता कंपनी ऐस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित कोविड-19 टीके पर दो दिन पहले रोक और फिर इजाजत काबिले सुकून है।

टीके की सफलता को अमेरिकी चुनाव से जोड़ ट्रम्प अपना मोहरा बनाने की तैयारी में है तो करीब 47 देशों में या तो चुनाव टल गए या वक्त पर नहीं होकर बाद में कराने का निर्णय हुआ। भारत में भी कोरोना राजनीति का खासकर जहाँ चुनाव या उपचुनाव होने हैं, अखाड़ा बनता जा रहा है।

भारत में तेजी से बढ़ते संक्रमण ने चिन्ताएं बढ़ा दी हैं लेकिन उससे भी बड़ा सच यह कि केवल वही कोरोना का असल खौफ समझ पा रहा है जिसने किसी अपने को खोया या खुद अथवा परिजन संक्रमित हुए हैं। बाकी ज्यादातर लोग बेफिक्री में हैं। कोरोना की जंग के लिए बस यही बड़ी चुनौती है। अनेकों सच सामने हैं जिसे लोगों ने देखा, समझा या महसूस किया।

कोरोना से मृतकों के पॉलिथिन में पैक शरीर और पीपीई किट पहन अंतिम संस्कार करते स्वजन तो कहीं शमशान में अंतिम क्रिया नहीं करने देने पर घण्टों भटकते शवों की सच्चाई ने बुरी तरह से आहत किया। लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं। बस मास्क भर लगाना है और दो गज की दूरी रखनी है, वह भी घर से बाहर सार्वजनिक जगहों पर। ऐसे में इतना करना है जिसे प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि जबतक नहीं दवाई, तबतक नहीं ढिलाई। (लेखक ऋतुपर्ण दवे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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