अतीत के पन्नों सेः श्रीयंत्र टापू में बिखरा खून बना आंदोलन की ताकत

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देहरादून। वर्ष 1995 में 11 नवम्बर की सुबह उत्तराखंड आंदोलन को नई धार देने वाली थी। एक दिन पहले अलकनंदा नदी से आंदोलनकारी यशोधर बैंजवाल और राजेश रावत के शव बरामद हो चुके थे। माहौल में गम और गुस्सा  था। उत्तराखंड राज्य के लिए दोनों आंदोलनकारियों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। उनकी शहादत का असर रहा कि रामपुर तिराहा कांड के बाद पुलिसिया दमन के कारण ठंडे पड़ चुके उत्तराखंड आंदोलन में नई जान आ गई। फिर 9 नवम्बर 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य का गठन हो गया।
shreeyantr taapoo
दो दिन पहले ही पूरे उत्तराखंड ने अपनी स्थापना की सालगिरह मनाते हुए शहीदों कोे याद किया है। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान रामपुर तिराहा, मसूरी, खटीमा के साथ ही श्रीयंत्र टापू कांड अलग राज्य का मजबूत आधार बना है। दरअसल, 2 अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहे में आंदोलनकारियों पर फायरिंग और महिलाओं के साथ दुराचार ने पूरे पहाड़ मे आग लगा दी थी। जगह-जगह आगजनी, तोड़फोड़ हुई, तो पुलिस का दमन चक्र और तेजी से चल निकला। इस दमन ने आंदोलन की गति रोक दी।
ऐसे में श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू में आंदोलनकारियों ने नए सिरे से आंदोलन की शुरूआत करने का निर्णय लिया। यह टापूनुमा जगह थी, जिसके दोनों और से अलकनंदा की धाराएं बह रही थीं और बीच में थोड़ी जमीन थी। आंदोलनकारी इसी जगह पर जाकर आमरण अनशन पर बैठ गए थे। राज्य आंदोलनकारियों को अनशन खत्म कराने के लिए पुलिस प्रशासन की टीम मौके पर पहुंची थी, तो ऐसा विरोध हुआ कि उसे बैरंग लौटना पड़ा। दूसरी बार की कोशिश में पुलिस प्रशासन की टीम सफल तो हुई, लेकिन आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज ने श्रीयंत्र टापू में खूून से एक अलग ही इबारत लिख दी। लाठीचार्ज से घायल होकर अलकनंदा में बहे यशोधर बैंजवाल और राजेश रावत के शव कई दिनों बाद बरामद हो पाए थे। इस शहादत के बाद आंदोलन का दौर फिर से शुरू हो गया था।
इस आंदोलन में सक्रिय रहे डाॅ. एसपी सती बताते हैं कि राज्य निर्माण के लिए यह आंदोलन मील का पत्थर साबित हुआ था। दो आंदोलनकारियों की तो मौत हुई थी, लेकिन तमाम आंदोलनकारियों को पकड़कर जेलों में ठूंसा गया और उन्हें यातनाएं दी गईं। इस आंदोलन से जुडे़ रहे राजेश नौटियाल को इस बात का अफसोस है कि एक सदस्यीय आयोग बनाए जाने के बावजूद श्रीयंत्र टापूू कांड के दोषियों को कोई सजा नहीं दी जा सकी।
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