भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा

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भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की अति समृद्ध परम्परा रही है। सनातन परंपरा में गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को अर्पित कर देते हैं और शिष्य को भूत, वर्तमान व भविष्य से परिचय करवाते हैं। इसीलिए तो भारत में सद्गुरु की महिमा का बखान किया गया है। गीता में कहा गया है कि जीवन को सुंदर बनाना, निष्काम और निर्दोष करना ही सबसे बड़ी विद्या है। इस विद्या को सिखाने वाला ही सद्गुरु कहलाता है। वास्तव में सद्गुरु वही है जिसे गुरु परम्परा से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई हो और वह शिष्य के पापों को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है।

सिर्फ शिक्षक या आचार्य ही गुरु नहीं होता, जो हमें ज्ञान के नंदनकानन में पहुंचा दे, वही वास्तविक गुरु हैं। गुरु बिन कहे, सुने, शिष्य के हृदय के भीतर झांक लेता है। गीता के इन वचनों से गुरु-शिष्य संबंधों की स्थापना के विषय में जाना जा सकता है – तद्विद्विप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। यह ज्ञान प्रणाम करके, बार-बार पूछ करके व सेवा द्वारा प्राप्त करो। प्रणाम और सेवा अर्थात विनम्रता। गुरु के एक-एक शब्द का अक्षरश: पालन करने वाल शिष्य ही सफल होता है।

प्राचीन काल में भारत में सामान शिक्षा व्यवस्था थी। एक ही गुरुकुल में सभी पढ़ते थे। गुरु-शिष्य परम्परा में महान वैभवशाली राजाओं की संताने भी शिक्षा ग्रहण करते थे। उन्हें कोई भी अतिरिक्त सुविधा नहीं दी जाती थी। सभी ब्रह्मचारी नियमपूर्वक गुरुकुल में रहते थे। महान स्मृतिकार मनु ने मनुस्मृति में लिखा है –

‘दूरादात्य सनिध सन्निदध्याद्विहायसि सायंप्रातरच जुहुयात्ताभिरग्निमर्तमन्द्रत’

अर्थात शिष्यगण नित्यप्रति दूर से समिधा लाकर सूने स्थान पर रखें। प्रात:काल व संध्या समय उन लकडिय़ों से आलस्य रहित होकर हवन करें।

सनातन परंपरा में शिष्य के लिए निर्देश थे कि वह मधु, मांस, सुगंध माला, रस, स्त्री, सहवास, सभी आसव सिरका और प्राणियों की हिंसा कदापि नहीं करेगा। शिष्य को मन से गुरु के मुख की ओर देखता हुआ शांतिपूर्वक खड़ा रहना चाहिए। इसके साथ ही गुरु के जागने से पहले उठना, उनके सोने के बाद शयन करना श्रेष्ठ शिष्य का कर्त्तव्य था। गुरु में असीम श्रद्धा का भाव उत्पन्न होने के बाद ही शिष्य का विस्तार संभव हो पाटा है।

गुरु ही मनुष्य को एक नई दृष्टि प्रदान करता है। गुरु हमारे अंत:करण में कर्तव्य का अहंकार नष्ट कर देता है। गुरु के बिना जीवन अधूरा रहता है। महाभारत की कथा के अनुसार शुकदेव ने किसी को भी गुरु धारण नहीं किया था अत: उन्हें विष्णुपुरी में प्रवेश की आज्ञा नहीं मिली। पिता की आज्ञा से वह राजा जनक को अपना गुरु बनाने के लिए चल दिए, लेकिन उनके मन में संशय भी था। वह सारे रास्ते सोचते रहे कि कहां जनक, कहां मैं, वह भोगी, मैं योगी, वह राजा, मैं ऋषि। भला वह मेरे गुरु कैसे बन सकते हैं ?

यही सब सोचते हुए शुकदेव जनक जी के पास पहुंचे तो उन्हें द्वार पर ही प्रतीक्षा करने को कहा गया। कुछ दिन बाद राजा जनक ने उन्हें महल में बुलवाया। वह अपने शिष्य के मन का मैल धोना चाहते थे। शुकदेव ने देखा कि महाराज जनक का एक पांव अग्रिकुंड में धरा है तथा दूसरा दासियां दबा रही हैं तभी महल में आग लगने की सूचना मिली। जनक ने कहा हरि इच्छा।

शुकदेव ने सोचा बुद्धिहीन राजा अपने वैभव और संपदा को बचाने का प्रयास तक नहीं कर रहा। मैं तो अपनी जान बचाऊं। यह सोचकर शुकदेव भागने लगे। चारों ओर लगी आग शांत हो गई। राजा जनक बोले- तुम मुझे भोगी कहते हो। मेरा तो सब कुछ स्वाहा हो गया। मैंने परवाह नहीं की, लेकिन तुमसे इस झोले कमंडल का मोह तक नहीं छोड़ा गया। अब बता त्यागी कौन है? अब शुकदेव का मोह भंग हो चुका था। इस तरह गुरु के कौतुक ने शुकदेव के ज्ञान-चक्षु खोल दिए। गुरु के समान कोई नहीं हो सकता है।

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