वट सावित्री व्रत का महत्व

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वैसे तो सभी सनातनी पर्व महत्वपुर्ण होते हैं, लेकिन वट सावित्री व्रत का अलग ही महत्व है। वट सावित्री में दो शब्दों से बना है और इन्हीं दो शब्दों में इस व्रत का धार्मिक महत्व भी छिपा हुआ है। पहला शब्द वट अर्थात बरगद है। हिन्दू धर्म में वट वृक्ष को पूजनीय माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार बरगद के पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) तीनों देवों का वास होता है। इसलिए बरगद के पेड़ की आराधना करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। दूसरा शब्द सावित्री है, जो महिलाओं के त्याग और संकल्प का महान प्रतीक है। पौराणिक कथाओं में सावित्री का श्रेष्ठ स्थान है। देवी सावित्री महिला सशक्तिकरण का प्रतीक मानी जाती हैं।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वट या बदगद के वृक्ष में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों का वास होता है। इसलिए इस पेड़ की पूजा करने से तीनों देवों की कृपा से महिलाओं को अखंड सौभाग्‍य की प्राप्ति होती है। इसलिए वट सावित्री व्रत में सुहागिनें सावित्री के समान अपने पति की दीर्घायु की कामना तीनों देवताओं से करती हैं ताकि उनके पति को समृद्धि, अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की प्राप्ति हो। ये व्रत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन सावित्री ने सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लिए थे।

इस व्रत में वट वृक्ष का महत्व बहुत होता है। इस दिन सुहागिनें वट वृक्ष की परिक्रमा कर उसकी पूजा करती हैं। परंपरा के अनुसार पूजा के बाद पेड़ पर सात बार कच्चा सूत लपेटा जाता है। इसके बाद बांस के पत्तल में चने की दाल और फल, फूल नैवैद्य आदि डाल कर ब्राह्मण को दक्षिणा दिया जाता है।

इस तरह वट सावित्री व्रत परम् सभाग्य के साथ प्रकृति का संरक्षण का भी पर्व है। चूंकि सभी वृक्षों में वट वृक्ष सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है, इसलिए इस व्रत की महत्ता को समझा जा सकता है। सत्य तो यह है कि सनातन परंपरा का हर पर्व प्रकृति से ही संबंधित है। ये पर्व हमे प्रकृति के अनुरूप चलने की सीख देते हैं।

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