भारतीय लोक जीवन में व्यापकता के साथ उपस्थित हैं मां गंगा

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पतित पावनि गंगा भारत के लोक जीवन की मां है। सनातनी समाज गंगा को जीवन दायिनी माता के रूप में देखता है। हिन्दी पट्टी में प्रचलित लोक गीतों और लोक कथाओं में गंगा का मुक्ति प्रदान करने वाला रूप उभर कर आता है। कजरी, चैती और होली-जैसे मौसमी गीतों, जन्म, मुंडन, विवाह और मृत्यु से जुड़े संस्कार गीतों, पराती, भजन- सभी में गंगा की मौजूदगी इसी रूप में देखी जा सकती है। दैनिक धार्मिक कृत्यों और पूजनोत्सवों में लोग गंगा का आवाहन कर उनके प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हैं। विभिन्न पर्वों पर गंगा स्नान के लिए उमड़ते जनसमूह को देख कर गंगा के प्रति कृतज्ञता के इस भाव को सहजता से देखा जा सकता है।

सनातन लोक समाज में आदिकाल से ही जागते-सोते गंगा के स्मरण की परम्परा रही है। भोर में उठते ही ‘पराती’ गाने की परम्परा अति प्राचीन है – ‘प्रात: दरसन दीय ए गंगा मइया, प्रातः दरसन दीय।’ इसी तरह रात को सोते समय गाए जाने वाले भजन में भी मां गंगा की ही याद आती है। वह किसान के खेत की भी रखवाली करती हैं – ‘हारल थाकल घरे चली अइनी, तोहरे हवाले करी खाद, मुदई के नईया डुबा द मझदार में, इहे बाटे हमरो गोहार, ए गंगा मईया।’

लोक संस्कार में गंगापूरी तरह से घुली हुई हैं। जन्म, मुंडन, विवाह और मृत्यु-जैसे चारों महत्त्वपूर्ण संस्कारों में गंगा के महत्त्व को देखा जा सकता है। जब बालक पैदा होता है तो बरही के दिन गंगा की भी पूजा होती है। इसी तरह मुंडन का बाल भी मां गंगा को चढ़ाया जाता है। विवाह का पहला निमन्त्रण भी गंगा को ही दिया जाता है। विवाह गीतों में औरतें इस गीत को गाती भी हैं – ‘पहले नेवता पेठाई मइया गंगा, दूसरे में शिव भगवान हो, जइसे बहतऽ रहे गंगा के धार, ओइसे बढ़ले एहऽबात हो।’

इसी तरह समाज के विभिन्न समुदायों में गंगा पूजन के विधि-विधान और गीत मौजूद हैं। मल्लाह, कुजड़ा और दुसाध समुदाय में प्रचलित गंगा पूजन की परम्परा अन्य समुदायों से भिन्न है। सवर्णों में गंगा पूजन सिन्दूर, गुड़ और चुनरी से होता है। दुसाधों की पूजा सामाजिक होती है। वह गाँव में घूमकर अपने यजमान से पिठार के लिए जौ और कुछ पैसा लेता है। तब आकर गंगा दशहरा के दिन, गंगा की पूजाई करता है और अपने-अपने यजमान के घर करधनी, लौंग ओर सिन्दूर प्रसाद के रूप में देता है।

कुजड़ा जाति के लोग धर्म से मुसलमान होते हैं। लेकिन हिन्दू ‘तुरहा’ की तरह उसका कार्य में भी फल का व्यापार होता है। पहले व्यापार के लिए जलमार्ग का ही उपयोग किया जाता था। गंगा बड़ी नदी थी। अपशगुन न हो, उसके लिए कुजड़ा भी गंगा का पूजन करते। यह पूजा भादों के महीने में मघा नक्षत्र में होती है। इस पूजा के दौरान औरतें कागज की नाव बनाकर उसमें फल भर देती हैं और गंगा के गीत गाती है। वे खाद-खीद्दत का स्मरण करते, गीत गाते हुए गंगा घाट पर या किसी तालाब पर जातीं और उसी में फल से भरे नाव को छोड़ आतीं।

कल्याणकारी मां के रूप में गंगा की यह लोक व्याप्ति भारतीय संस्कृति की रीढ़ है। वह देवी और नदी, दोनों रूपों में उद्धार करने वाली हैं। यही कारण है कि लोकगीत, लोककथा, कहावत और पहेलियों – लोक-साहित्य और संस्कृति के प्रत्येक आयाम में व्यापकता के साथ उपस्थित हैं।

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