आजकल मूर्धन्य इतिहासकार इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के नाम मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी का खुला पत्र सोशल मीडिया पर वायरल है। इसमें मध्यकाल के मुस्लिम इतिहास को लेकर की गई मिलावट और मनमानी पर कई सवाल खड़े किए गए हैं। इस लंबी चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि आज इतिहास को लेकर भारतीयों में पहले से ज़्यादा जागरूकता पैदा हुई है। इंटरनेट ने तथ्यों को उजागर करने में बहुत मदद की है। आप भी पढ़ें और बताएं कि जो बात उन्होंने कहीं हैं या तथ्य उन्होंने रखें हैं आप उनसे कितना सहमत हैं।
मैं साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ। मगर बहुत बचपन से ही मेरी दिलचस्पी इतिहास में थी। लेकिन सबसे पास के कॉलेज में इतिहास में एमए की व्यवस्था ही नहीं थी और मैं पढ़ाई के लिए बाहर जा नहीं सकता था, इसलिए गणित में एमएससी करके एक साल काॅलेज में पढ़ाया। फिर लिखने के शौक की वजह से मीडिया में आ गया।
मुझे अच्छी तरह याद है कि तीस साल पहले गणित की डिग्री लेते हुए जब इतिहास की किताबों में ताकाझाँकी शुरू की थी, तब इरफान हबीब और रोमिला थापर के नाम बहुत इज़्ज़त से ही सुने और माने थे। हमने आपको इतिहास लेखन में बहुत ऊँचे दर्जे पर देखा था।
हम नहीं जानते थे कि इतिहास जैसे सच्चे और महसूस किए जाने वाले विषय में भी कोई मिलावट की गुंजाइश हो सकती है। हम सोच भी नहीं सकते थे कि इतिहास में कोई अपनी मनमर्ज़ी कैसे डाल सकता है।
वह इन सात सौ सालों के इतिहास की एक शानदार पैकेजिंग करता था। उसी पैकेजिंग से हिंदी सिनेमा के कल्पनाशील महापुरुषों ने बड़े परदे पर ‘मुगले-आजम’ और ‘जोधा-अकबर’ के कारनामे रचे।
चूँकि मुझे इतिहास में एमए की डिग्री नहीं लेनी थी और न ही पीएचडी करके किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी की नौकरी की तमन्ना या जरूरत थी इसलिए मैं एक आज़ाद ख़्याल मुसाफिर की तरह इतिहास में सदियों तक भटका और कई ऐसे लोगों से अलग-अलग सदियों जाकर मिला, जो अपने समय का सच खुद लिख रहे थे।
ऐसा होना तब शुरू हुआ जब मैंने समकालीन इतिहास के मूल स्त्रोतों तक अपनी सीधी पहुँच बनाई। यह काम उसी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के जरिए हुआ, जहाँ आप इतिहास के एक प्रतिष्ठित आचार्य रहे हैं। मैंने आज़ादी के बाद की लिखी गई इतिहास की किताबों को अपनी लाइब्रेरी की एक अल्मारी में रखा और सीधे मुखातिब हुआ मध्यकाल के मूल लेखकों से।
इतिहास हमारे यहाँ एक उबाऊ विषय माना जाता रहा है। आम लोगों की कोई रुचि नहीं रही यह पढ़ने में कि बाबर का बेटा हुमायूँ, हुमायूँ का बेटा अकबर, उसका बेटा सलीम, उसका बेटा खुर्रम और उसका बेटा औरंगज़ेब। इसे पढ़ने से मिलना क्या है? गाँव-गाँव में बिखरी और बर्बाद हो रही ऐतिहासिक विरासत के प्रति आम लोगों का नज़रिया बहुत ही बेफिक्री का रहा है। उन्हें कोई परवाह ही नहीं कि ये सब कब और किसने बनाए और कब? और किसने बर्बाद किए, क्यों बर्बाद किए?
अलबत्ता प्राचीन बुतखानों की बरबादी को एकमुश्त सबसे बदनाम मुगल औरंगज़ेब के खाते में एकमुश्त डाला जाता रहा है। वहाँ भी पुरातत्व वालों के एक साइन बोर्ड पर आलमगीरी मस्जिद ही लिखा है, जो एक पुराने मंदिर को तोड़कर बनाई गई। वह बरबाद स्मारक उस शहर के एक ज़ख्म की तरह आज भी खड़ा है, जहाँ बहुत कम लोग ही आते हैं। किसी को कोई मतलब नहीं है।
जब मैं समकालीन लेखकों के दस्तावेजी ब्यौरों में गया तो पता चला कि मिनहाजुद्दीन सिराज ने उस मंदिर की ऊँचाई 105 गज ऊँची बताई है, जिसे शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने 1235 के भीषण हमले में तोड़कर बरबाद किया। लेकिन मुझे यह जानकर हैरत हुई कि इतिहास विभाग में नौकरी करने वाले कई प्रोफेसरों को भी इसके बारे में कुछ खास इल्म था नहीं।
मैं अपने मूल विषय पर आता हूँ। बरसों तक इतिहास को एक खास पैटर्न पर पढ़ते हुए हमने अलाउद्दीन खिलजी की बाजार नीतियों को इस अंदाज़ में पढ़ा जैसे कि दिल्ली के किले में बैठकर हुए फैसलों से भारत का शेयर मार्केट आसमान छूने लगा था और विदेशी निवेश में अचानक उछाल आ गया था, जिसने भारत के विकास के सदियों से बंद दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिए थे।
मसलन बाज़ार नीतियों के कसीदों में दिल्ली में सजे गुलामों के बाजार का कोई ज़िक्र तक नहीं है, जहाँ दस-बीस तनके में वे लड़कियाँ ग़ुलाम बनाकर बेची गईं, जो खिलजी की लुटेरी फौजें लूट के माल में हर तरफ से ढो-ढोकर लाई जा रही थीं। जियाउद्दीन बरनी ने गुलामों की मंडी के ब्यौरे दिए हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि आपकी आँखों के सामने से वह मंजर गुजरा न हो। इसी तरह मोहम्मद बिन तुगलक की नीतियों पर ऐसे चर्चा की गई, जैसे बाकायदा कोई नीति निर्माण जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ आज की तरह संवैधानिक तौर पर काम कर रही थीं। जबकि उस दौर में अपने आसपास तमाम तरह के मसखरों और लुटेरों से घिरे तथाकथित सुलतानों की सनक ही इंसाफ थी।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि सदियों तक सजे रहे उन गुलामों के बाज़ार में बिकी हजारों-लाखों बेबस बच्चियाँ और औरतें कहाँ गई होंगी? वे जिन्हें भी बेची गई होंगी, उनकी भी औलादें हुई होंगी? आज उनकी औलादें और उनकी भी औलादों की औलादें सदियों बाद कहाँ और किस शक्ल में पहचानी जाएँ?
जब मैं यह सोचता हूँ तो आज के आजम-आजमी, जिलानी-गिलानी, इमरान-कामरान, राहत-फरहत, सलीम-जावेद, आमिर-साहिर, माहरुख-शाहरुख, औवेसी-बुखारी, जुल्फिकार-इफ्तखार, तसलीमा-तहमीना, शेरवानी-किरमानी जैसे अनगिनत चेहरे आँखों के सामने घूमने लगते हैं।
ऐसे दो-चार नहीं सैकड़ों रुला देने वाले विवरण हैं, जो इतिहास पर लिखी हुई किताबों में पूरी तरह गायब हैं। इन पर लंबी बहस हो सकती है। कई किताबें लिखी जा सकती हैं। खुद ये असल और एकदम ताजे ब्यौरे मोटी-मोटी कई किताबों में रियल टाइम दर्ज हैं। इनमें कोई मिलावट नहीं है। कोई मनमर्जी नहीं है। जो देखा जा रहा था, जो घट रहा था, बिल्कुल वही जस का तस कागजों पर उतार दिया गया है। लेकिन आजादी के बाद के इतिहास लेखन में भारत के मध्यकाल के इतिहास का यह भोगा हुआ सच पूरी तरह गायब है।
किसी मुल्क के इतने बड़े भौगोलिक विस्तार में देवी-देवता और उनकी मूर्तियाँ एक ही तरह से बनाईं और पूजी जा रही थीं। आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम के पहाड़ी स्तूपों से लेकर अफगानिस्तान के बामियान तक गौतम बुद्ध एक ही रूप में पूजे जा रहे थे, जिनके महान स्मारक इस छोर से उस छोर तक बन रहे थे। यह तो दो हजार साल पीछे की बातें हैं।
अगर भारत के इतिहास को एक किक्रेट मैच के नज़रिए से देखा जाए तो पचास ओवर के टेस्ट मैच में सल्तनत और मुगल काल आखिरी ओवर की गेंदों से ज़्यादा हैसियत नहीं रखते। लेकिन इतिहास की कोर्स की किताबों में इन खिलाड़ियों को पूरे ‘मैच का मैन ऑफ द मैच’ बना दिया गया है। अगर मैच जिताने लायक ऐसा कुछ बेहतरीन होता भी ताे कोई समस्या या आपत्ति नहीं थी।
तीस साल बाद आज भी मैं इतिहास के विवरणों में जाता रहता हूँ। भारत की यात्राओं में मैं नालंदा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों के खंडहरों में भी घूमा हूँ और दूर दक्षिण के विजयनगर साम्राज्य के बर्बाद स्मारकों में भी गया हूँ। इनकी असलियत आपसे बेहतर कौन जानता है कि ये उस दौर में इस्लामी आतंक के शिकार हुए हैं। ऐसे हजारों और हैं।
अगर हिंदी सिनेमा की एक मशहूर फिल्म ‘शोले’ की नजर से भारत के इतिहास को देखा जाए तो मध्यकाल का इतिहास एक नई तरह की शोले ही है। आप जैसे महान विचारकों की इस रचना में गब्बर सिंह, सांभा और कालिया रामगढ़ के चौतरफा विकास की नीतियाँ बना रहे हैं। रामगढ़ पहली बार उनकी बदौलत ही चमक रहा है। रामगढ़ में विदेशी निवेश बढ़ रहा है और हर युवा के हाथ में काम है। बाजार नीतियाँ गज़ब ढा रही हैं। शेयर मार्केट आसमान छू रहा है। कारोबारी भी खुश हैं और किसान भी। मगर वीरू रामगढ़ की किसी गुमनाम गली में बसंती की घोड़ी धन्नो को घास खिला रहा है।
इतिहास की बात है, बहुत दूर तक न जाए, इसलिए इस खत को यहीं समेटता हूँ। मैं याद करता हूँ, तीस साल पहले जब एनसीईआरटी की किताबों में इतिहास को पढ़ना शुरू किया और कॉलेज में चलने वाली कोर्स की किताबों के जरिए भारत के मध्यकाल को पढ़ा तो उस दौर में अखबार में छपने वाले इतिहास संबंधी लेखों में इरफान हबीब और रोमिला थापर को अपने समय के महान प्रज्ञा पुरुषों के रूप में ही पाया।
भारत का अतीत आज हर युवा को आकर्षित कर रहा है। वह भले ही किसी भी विषय में पढ़ा हो लेकिन इतिहास में पहले से बहुत ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। वह सच को जानने में उत्सुक है। बिना लागलपेट वाला सच। बिना मिलावट वाला इतिहास का सच, जिसमें न किसी सरकार की मनमर्जी हो और न किसी पंथ की बदनीयत!
जिस इस्लाम के नाम पर दिल्ली पर कब्ज़े के बाद सात सौ सालों तक और सिंध को शामिल करें तो पूरे हज़ार साल तक भारत में जो कुछ घटा है, वह सब दस्तावेजों में ही है। आज के नौजवान को यह सुविधा इन हजार सालों में पहली ही बार मिली है कि वह उसी इस्लाम की मूल अवधारणाओं को सीधा देख ले। कुरान अपने अनुवाद के साथ सबको मुहैया है और हदीसों के सारे संस्करण भी। भारत के लोग जड़ों में झाँक रहे हैं जनाब।
क्यों लोग इतनी लानतें भेज रहे हैं। वामपंथ को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की यह दिव्य दृष्टि कहाँ से प्राप्त होती है? मेरे लिए यह भीतर तक दुखी करने वाला विषय इसलिए है क्योंकि मैंने जिस दौर में इतिहास पढ़ना शुरू किया, आप महानुभावों को सबसे योग्य इतिहासकारों के रूप में ही जाना और माना था। ऊँचे कद और लंबे तजुर्बे के ऐसे लोग जिन्होंने भारत के इतिहास पर किताबें लिखीं। यह कितना बड़ा काम था।
जनाब, मैं चाहता हूँ कि आप चुप्पी तोड़ें। गिरेबाँ में झाँकें, उठ रहे हर सवाल का जवाब दें। सामने आएँ और मेहरबानी करके हाथापाई न करें। अपने समूह के अन्य इतिहास लेखकों को भी साथ लाएँ। वैसे भी आपको अब पाने के लिए रह ही क्या गया है। पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार से परे हैं आप। न अब और कुछ हासिल होने वाला है और न ही यह कोई छीनकर ले जाएगा!
आखिर उस सच्चाई पर चादर डाले रखने की ऐसी भी क्या मजबूरी थी? हमारी ऐसी क्या मजबूरी थी कि हम उन लुटेरे, हमलावरों और हत्यारों को सुल्तान और बादशाह मानकर ऐसे चले कि हमने उन्हें देवताओं के बराबर रख दिया और देवताओं को हाशिए पर भी जगह नहीं मिली?
अंत में यह और कहना चाहूँगा कि आज की नौजवान पीढ़ी मध्यकाल के इतिहास को देख और पढ़ रही है तो वह इन ब्यौरों की रोशनी में टेक्नालॉजी के ही ज़रिए आज के सीरिया, इराक, ईरान, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कुछ अफ्रीकी मुल्कों की हर दिन की हलचल को भी देख पा रही है।
ईश्वर आपको अच्छी सेहत और लंबी उम्र दे। ताकि सत्तर साल का इतिहास के कोर्स का बिगाड़ा हुआ हाजमा आप अपनी आँखों से सुधरता हुआ भी देख सकें। हमें यह भी मान लेना चाहिए कि आखिरकार ऊपरवाला सारे हिसाब अपने बंदों के सामने ही बराबर कर देता है!