आपके और लोकतंत्र के जिंदा रहने का सबूत है सत्ता से सवाल करना…..

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सवाल करें….सवाल अपने लिए करें….अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए करें…..जब आप सवाल करना बंद कर देंगे तो आप अपना और अपनी पीढ़ी की आवाज़ को मार देंगे। उससे भी बढ़कर अपनी संविधान प्रदत्त आजादी को अपने हाथों मौत के घाट उतार देंगे। इसलिए सवाल करें क्योंकि यही सवाल आपके जिंदा होने के सबूत हैं। क्योंकि जिंदा कौमें ही सवाल किया करती हैं, मुर्दे बोला नहीं करते हैं।

बकौल भगत सिंह जी, अगर आवाम बिना कोई सवाल किए हुए हुक्मरानों की हर बात मानती जा रही है तो यह किसी भी मुल्क के लिए अच्छी खबर नहीं है। याद रखिए सत्ता किसी भी देश की वो वह बंदूकों और गोलियों से नहीं डरती है, वह डरती है आपके सवाल करने से…..वह डरती है आपके हाथों में पकड़ी हुई किताबों से, वह डरती है आपके शिक्षित होने से….आप पढ़ेंगे तो सवाल भी करेंगे…… हिटलर इन्हीं सवालों से ही डरता था इसीलिए उसने कहा था कि यदि आप देश पर लंबे समय तक हुकूमत करना चाहते हैं तो सबसे पहले आवाम के दिमाग़ पर कब्जा करो। उसके सवाल करने और सोचने-समझने व तर्क करने की ताकत को खत्म कर दो…..न सवाल होंगे न सत्ता खतरे में होगी।

आपकी-हमारी आवाज़ कभी भारत का मीडिया हुआ करता था लेकिन वह अब Paidigree का रहा है। मीडिया का मर जाना या बिक जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद आवाम का सवाल न करना है। स्मरण करें, भारत के महालेखाकार परीक्षक की रिपोर्ट हर साल आती थी और उसके हर एक पन्ने पर यही मीडिया सवाल करता था…. रिपोर्ट अब भी आती है लेकिन अब मीडिया सवाल नहीं करता है…..तो आप यानी हम सब तो सवाल करें। सवाल आप को कट्टर भारतीय बनाते हैं और खामोशी आपको नपुंसक बनाती है।

क्या यह सवाल नहीं बनते हैं कि कहां हैं हमारी हर साल की एक करोड़ नौकरियां? क्या यह सवाल बेईमानी है कि आजादी के बाद पहली बार इतनी बेरोजगारी क्यों? क्या यह सवाल नहीं उठता कि 2014 से लेकर 2017 तक 16 हजार किसानों व कृषि मजदूरों ने आत्महत्याएं क्योंकि? क्या यह सवाल नहीं उठता कि डालर के मुकाबले किन कारणों से रूपए की कीमत रसातल में चली गई? क्या यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि बैंकिंग सेक्टर क्यों डूब रहा है? क्यों हम यह नहीं पूछ सकते कि आप रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से अरबों रूपए किस लिए आहरित कर रहे हैं? हम ये सवाल क्यों नहीं कर सकते कि यदि फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा है तो किसान आज भी क्यों तबाह है?

सवाल ये बनता है कि नहीं कि बीजों के लिए जो सब्सिडी सरकार देती थी वह क्यों बंद हुई? क्यों तेल के दाम बढ़ा कर आवाम को लूटा जा रहा है? कैसे विश्व में जबरदस्त रिसेशन के बावजूद देश के दो उद्यमियों को 100% मुनाफा हुआ? उनके लाखों रूपए के कर्जों को क्यों माफ़ किया गया? क्यों यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि नोटबंदी के लाभ बताए सरकार, आखिर हमने नोटबंदी की लाइन में 200 अपने लोग खोए हैं? जीएसटी क्यों आनन-फानन में लागू हुई और बाद में उसमें 265 से अधिक संशोधन अब तक हुए और हो रहे हैं? क्या यह सवाल करना गुनाह है कि जहां भाजपा की सरकारें हैं वहां सीजीएसटी का पैसा सरकारों को केंद्र दे रहा है और जहां नहीं हैं वहां रोंक रहा है?

क्या जहां भाजपा की सरकारें नहीं हैं वहां के नागरिक भारतीय नहीं रहे? जनवरी में जब पहला कोरोना केस आया और WHO ने वार्निंग जारी की तभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानें क्यों नहीं बंद की गईं? क्यों फरवरी में लोकसभा में कोरोना वायरस से लड़ने की तैयारियों का मजाक उड़ाया गया? क्यों 19 मार्च तक भारत से पीपीई किट आदि का निर्यात जारी रहा जब कि भारत में केस दर्ज हो रहे थे? क्यों बतौर भारतीय मुझे यह जानने व सवाल करने का हक नहीं होना चाहिए कि पुलवामा का सच क्या है? क्यों हमें चीन के मामले में बतौर भारतीय सच जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या यह सवाल बनता है कि सरकार संसद में कोई ऐसा कानून ले आई है जिससे कि कोई भी नागरिक अगर सत्ता से सवाल करेगा तो वह राष्ट्रद्रोही माना जाएगा?

क्या यह सवाल करना बेईमानी है कि पीपीएफ व पीएफ जिसका ब्याज बुढ़ापे का सहारा होता है, वह आजादी के बाद पहली बार क्यों गिरा दिया गया? क्यों यह सवाल न करें कि 2014 के मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत में सरकार फर्क बता दे? सरकार 2014 से अभी तक चीनी कंपनियों को भारत में निवेश के अरबों डॉलर के काम देती रही, यह जानते हुए भी कि चीनी कंपनियों ने भारतीय कंपनियों को लगभग तबाह कर दिया है, ऐसा क्यों?…….याद रखिए जब आप सवाल करते हैं तो हुक्मरानों की पेशानी पर बल पड़ता है। वे समझते हैं कि जनता सब समझती है….. लेकिन जब आप खामोश होते हैं तो आप अपनी और अपनी पीढ़ी के विनाश की सेज सजा रहे होते हैं।
अगर हम और आप वोट देकर सरकारें चुनते हैं तो यह हक रखते हैं कि आप से सवाल कर सकें…..

एक बात और…..सबसे ख़तरनाक होता है आंखों से अश्कों का मर जाना। दूसरों के दर्द का एहसास खत्म हो जाना। घरों की खिड़कियों को बंद कर सलाखें चढ़ा लेना और दीन से कट जाना।‌ उससे भी ज्यादा खतरनाक होता है दर्द का भी अपनी-अपनी पसंदगी न पसंदगी में बंट जाना। हुक्मरानों ने इसी खांचेगिरी को कायम रखने में सफलता पा ली है…… अब दर्द के भी “खांचे” बन चुके हैं….अपनी पसंद का दर्द होगा तो अश्कों का समंदर होगा नहीं तो हजारों मरते हैं इस जहां में क्या‌ गम होगा? दर्द को जाहिर करने के भी राजनैतिक पैमाने होते हैं। जैसे हथनी को किसी “जानवर” ने विस्फोटक खिला कर मार दिया…. हथनी चूंकि केरल में मरी तो “राजनैतिक जीव” हो गई।

यूपी, गुजरात, बिहार, हिमाचल….में मरती तो मर जाती…? दो अश्कों की हकदार भी न होती….केरल में मरी तो बंद खिड़कियों से सिटकिनियां नीचे आईं और दरवाज़े खुल‌ गये। तालाबों व पोखरों के किनारे टिटिहरी की तरह चीखती हुई कुछ आवाजें बुलंद हुईं और “खांचे के फिट” दर्द की फाइल आंखों में खोल कर रो पड़ी। बेशक बहुत ही गंदा, गलीच, घटिया, नामाकूल और बेगैरत “जानवर” रहा होगा जिसने एक गर्भवती हथिनी को इतनी दर्दनाक मौत दी। सूली पर सरेआम लटका कर मार देना चाहिए ऐसे जानवर को… लेकिन मौत फिर से अपने-अपने खांचे से निकली। जाहिल चैनलों की वही नकारा और बिकी हुई आवाजें बुलंद हुईं जो सड़कों पर भूख और प्यास से इंसानों की मौत पर खामोश‌ थीं। इनके जमीर में पड़ी “नथ” इनके आकाओं ने ढीली की तो दर्द भरी आवाजों का बांध वैसे ही फूट पड़ा जैसे किसी जलाशय के गेट खोल दिए जाते हैं और पानी का रेला बह निकलता है।

हथनी की मौत पर बिकाऊ चैनलों पर प्राइम टाइम चलने लगा। हथनी की मौत को संवेदनाओं की चाशनी में लपेट कर उसका राजनीतिकरण कैसे किया जाता है यदि इसका विभत्स और गंदेला रूप देखना हो तो मीडिया की “”खबरांग्नाओं” के चेहरे देखिए और उन नेताओं के विद्रूप्त और “आत्माविहीन ठस चेहरों” को देखिए जो इंसानी जिदंगी पर नहीं रोये। इनकी संवेदनाओं की आत्मा वहां मर जाती है जब रेलवे स्टेशन पर दो साल का बच्चा अपनी मां की लाश से बार-बार चादर खींचता है कि शायद मां उठ जाए, उस वक्त इनकी पत्रकारिता का श्राद्धकर्म हो जाता है जब एक अन्य बहुत ही छोटा बच्चा अपनी मां के सिर पर पानी डालकर उसे उठाने की कोशिश करता है….ट्रेन में भूख और प्यास से 80 से ज्यादा मजदूर मारे जाते हैं तो वो बहस का विषय नहीं बनते हैं, सड़क पर एक मजदूरन अपने बच्चे को जन्म देती है और झाड़ियों में उसे छोड़कर चली जाती है कि उसके बच्चे को कोई पाल लेगा वरना वह रास्ते में ही मर जाएगी….।

लगभग 300 गरीब मजदूर सड़कों पर मारे गये लेकिन कोई नहीं रोया? कोई सवाल नहीं उठा? खाया अघाया पेट तो यह भी “डकारें” मारने लगा कि इन मजदूरों ने पलायन करके देश को बदनाम कर दिया। यह वही खाया-पिया-अघाया पेट है, जो एनजीओ को गाली बकता‌ है और नसीहत की डकार मार एसी चलाकर हो जाता है….अगर यही सामाजिक संगठन नहीं होते और हजारों-हजार कुछ जिंदा लोग सड़कों पर मदद के लिए नहीं आए होते, देश भर के गुरूद्वारों ने लंगर नहीं चलाए होते तो ये मजदूर हजारों की संख्या में मरे होते…..इन इंसानों के लिए कोई “ह्यूमेन राइट्स” वाला नहीं निकला…. निकलता भी क्यों दरिद्रों के भी कोई “राइट्स” होते हैं क्या? ये पैदा होते‌ हैं मरने के लिए….
……सवाल हथनी के हों? सवाल मजदूरों के हों? उत्तर प्रदेश के एक बालिका गृह से नाबालिग बच्चियों के गर्भवती होने को हों, या एक साल की मासूम बच्ची से रेप के……पसंद व नापसंदगी के खांचे में जो सवाल उठ रहे हैं दरअसल वे आपकी जमीर के मर जाने की निशानदेही करते हैं……
सवाल अपने लिए….अपनी बच्चियों के लिए….बच्चों के भविष्य के लिए…अपनी रोजी-रोटी के लिए…… अपने सुखमयी बुढ़ापे के लिए और इस देश के लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए उठाएं…..क्योंकि “लोक” यानी लोग यानी हम लोगों से ही लोकतंत्र है….चंद नेताओं के लिए अपने हलक और उसमें फंसी आवाज़ को निकालिए और सवाल करिए…..फिर सत्ता चाहे जिस की हो…..।।मां भारती की विजय हो।।

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