Up Kiran, Digital Desk: प्रशांत किशोर, जो कभी राजनीतिक रणनीतियों के मास्टरमाइंड माने जाते थे, अब खुद चुनाव के मैदान में उतरकर उम्मीद के मुताबिक प्रभाव नहीं बना पा रहे हैं। उन्होंने गांव-गांव जाकर पदयात्राएं कीं और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, फिर भी उनका चुनावी असर कमजोर नजर आ रहा है।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी कमजोरी उनकी सामाजिक और संगठनात्मक रणनीति रही। ब्राह्मण समुदाय से होने के बावजूद, उन्होंने अपनी जातीय आधार को मजबूत नहीं किया। नतीजतन, जो संगठित जमीनी ताकत नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक सफर में जुटाई थी, प्रशांत किशोर उसे खड़ा नहीं कर पाए।
नीतीश कुमार से क्या सीखा जा सकता था?
अगर बिहार की राजनीति की बात करें तो 1992 से 1995 का दौर बेहद अहम रहा। उस वक्त नीतीश कुमार ने 'कुर्मी महारैली' के ज़रिए लालू यादव के खिलाफ अपनी पकड़ मजबूत की। उनके मार्गदर्शक जॉर्ज फर्नांडिस थे और 2000 के विधानसभा चुनाव तक वो सत्ता के बेहद करीब पहुंच गए थे। अगर प्रशांत किशोर इसी रणनीति पर चलते तो आज उनकी स्थिति अलग होती।
उम्मीदवारों की कमी ज़मीनी पकड़ की बड़ी बाधा
प्रशांत किशोर के पास अच्छे उम्मीदवार हैं, लेकिन उनमें ज़मीनी राजनीति का अनुभव कम है। इसका नतीजा यह है कि कई जगह उनके प्रत्याशी अपना नामांकन वापस ले रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, गोपलगंज में भूमिहार समाज से जुड़े डॉ. शशि शेखर सिंह ने भाजपा के उम्मीदवार के समर्थन में अपनी उम्मीदवारी वापस ली। इसका असर सारण क्षेत्र की राजनीति पर पड़ने वाला है।
चुनावी प्रभाव क्यों घट रहा है?
विश्लेषकों की मानें तो चुनाव सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी नारों से नहीं जीते जाते। जब जनता में कोई सक्रिय लहर नहीं होती, तब उम्मीदवारों का मजबूत जमीनी नेटवर्क निर्णायक साबित होता है। प्रशांत किशोर के पास साफ-सुथरे चेहरे तो हैं, लेकिन वे ‘चुनावी घोड़े’ नहीं हैं। टिकट बंटवारे और दलगत खेल में उनकी चमक फीकी पड़ती जा रही है। इसलिए बिहार की राजनीति में उनका असर कम होता जा रहा है।
_933216895_100x75.jpg)
_1701485246_100x75.jpg)
_1578377114_100x75.jpg)
_1470818903_100x75.jpg)
 (1)_476025079_100x75.jpg)