द्वापर युग में पृथ्वी पर राक्षसो का अत्याचार चरम पर था। इससे दुखी होकर एक दिन पृथ्वी माता गाय का रूप धारण कर देवताओं के पास गई। उस समय सारे देवता भी ब्रह्मा जी के पास उपस्थित थे। पृथ्वी माता ने कहा, हे देवतागण, मेरी रक्षा करें। इस राक्षसों का आतंक मुझ पर बढ़ता जा रहा है। इनका उन्मूलन करें। देवताओं के पास इसका कोई समाधान नहीं था। इस पर सभी देवता धरती मां के साथ सभी देवता, ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी सभी को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर गए। उस समय भगवान विष्णु अन्नत शैया पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हुई।
भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी एवं सब देवताओ को देखकर उनके आने का कारण पूछा तो पृथ्वी बोली-भगवान मैं पाप के बोझ से दबी जा रही हूँ। मेरा उद्धार किजिए। यह सुनकर भगवान विष्णु उन्हें आश्वस्त करते हुए बोले की चिंता न करें, मैं नर-अवतार लेकर पृथ्वी पर आऊंगा और इसे पापों से मुक्ति प्रदान करूंगा। मेरे अवतार लेने से पहले कश्यप मुनि मथुरा के यदुकुल में जन्म लेकर वसुदेव नाम से प्रसिद्ध होंगे। मैं ब्रज मण्डल में वासुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से कृष्ण के रूप में जन्म लूंगा और उनकी दूसरी पत्नी के गर्भ से मेरी सवारी शेषनाग बलराम के रूप में जन्म लेंगे। तुम सब देवतागण ब्रज भूमि में जाकर यादव वंश में अपना शरीर धारण कर लो। मैं पापियों का संहार कर पृथ्वी को पापों के भारमुक्त करूंगा। इतना कहकर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गए।
उस समय मथुरा में राजा उग्रसेन राज किया करते थे। वे दयालु राजा थे, लेकिन उनका बेटा कंस बहुत अत्याचारी था। एक दिन उनसे बलपूर्वक राजा उग्रसेन को सिंहासन से उतार कर ुंझे कारागार में डाल दिया और खुद राजा बन गया। कंस अपनी बहन देवकी से बहुत प्यार करता था। देवकी का विवाह राजा शूरसेन के पुत्र वासुदेव के साथ हुआ था। विवाह के बाद जब कंस देवकी को विदा करने लगा, तभी आकाशवाणी हुई कि देवकी की 8वीं संतान उसका वध करेगी। इतना सुनते ही कंस क्रोधित हो गया और उसने देवकी और वासुदेव को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया।
दुष्ट कंस ने देवकी की सभी संतानों का बढ़ करने का निर्णय लिया और एक-एक करके उसने देवकी की छह संतानों को एक चट्टान पर पटक कर निर्दयता पूर्वक मार डाला। इसके बाद भादौं मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। उनके जन्म लेते ही जेल ही कोठरी में प्रकाश फैल गया। वासुदेव-देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा, एव पदमधारी चतुर्भुज भगवान विष्णु ने प्रकट होकर कर कहा कि अब मै बालक का रूप धारण करता हूँ तुम मुझे तत्काल गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा दो और उनकी अभी-अभी जन्मी कन्या को लाकर कंस को सौप दो ।
तत्काल वासुदेव जी की हथकडियाँ खुल गई । दरवाजे अपने आप खुल गये और सभी पहरेदार सो गये। वासुदेव कृष्ण को सूप में रखकर गोकुल को चल दिए रास्ते में यमुना श्रीकृष्ण के चरणो को स्पर्श करने के लिए बढने लगी। भगवान ने अपने पैर लटका दिए चरण छूने के बाद यमुना घट गई। वासुदेव यमुना पार कर गोकुल में नन्द के यहाँ गये बालक कृष्ण को यशोदाजी की बगल मे सुंलाकर कन्या को लेकर वापस कंस के कारागार में आ गए। जेल के दरवाजे पूर्ववत् बन्द हो गये। वासुदेव जी के हाथो में हथकड़ियां पड गई, पहरेदार जाग गये और कन्या के रोने का समाचार कंस को दिया।
कंस ने कारागार मे जाकर कन्या को लेकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, परन्तु वह कंस के हाथो से छूटकर आकाश में उड गई और बोली, हे कंस! मुझे मारने से क्या लाभ? तेरा शत्रु तो गोकुल में पहुच चुका है। यह सुनकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया। उसने श्री कृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे श्रीकृष्ण ने अपनी आलौलिक माया से सारे दैत्यो का बध कर डाला। बडे होने पर श्री कृष्ण ने कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया।