नई दिल्ली, यूपी किरण। नवरात्रि के पहले दिन कलश और माता की चौकी स्थापित करने का विधान है और उसके बाद पूरे नौ दिनों तक माता की पूजा करने के बाद कन्याओं को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथासम्भव उपहार इत्यादि देने चाहिए। कुछ लोग पूरे नवरात्रि का व्रत रखते हैं तो कुछ लोग इस पर्व के पहले और आखिरी दिन ही व्रत रखते हैं। व्रतियों को चाहिए कि नवरात्रि के पहले दिन प्रातःकाल उठकर स्नान आदि करके मंदिर में जाकर माता के दर्शन कर पूजा करें या फिर घर पर ही माता की चौकी स्थापित करें।
घटस्थापना का शुभ मुहूर्त
चौकी स्थापित करने में उपयोग आने वाली वस्तुएं
माता की चौकी को स्थापित करने में जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है उनमें गंगाजल, रोली, मौली, पान, सुपारी, धूपबत्ती, घी का दीपक, फल, फूल की माला, बिल्वपत्र, चावल, केले का खम्भा, चंदन, घट, नारियल, आम के पत्ते, हल्दी की गांठ, पंचरत्न, लाल वस्त्र, चावल से भरा पात्र, जौ, बताशा, सुगन्धित तेल, सिंदूर, कपूर, पंच सुगन्ध, नैवेद्य, पंचामृत, दूध, दही, मधु, चीनी, गाय का गोबर, दुर्गा जी की मूर्ति, कुमारी पूजन के लिए वस्त्र, आभूषण तथा श्रृंगार सामग्री आदि प्रमुख हैं।
इस विधि से करें पूजन
घट की स्थापना करके तथा नवरात्रि व्रत का संकल्प करके सर्वप्रथम गणपति तथा मातृक पूजन करना चाहिए तत्पश्चात पृथ्वी का पूजन करके घड़े में आम के हरे पत्ते, दूब, पंचामूल, पंचगव्य डालकर उसके मुंह में सूत्र बांधना चाहिए। घट के पास गेहूं अथवा जौ का पात्र रखकर वरूण पूजन करके मां भगवती का आह्वान करना चाहिए। विधिपूर्वक मां भगवती का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करके कुमारी पूजन का भी माहात्म्य है। कुमारियों की आयु एक वर्ष से 10 वर्ष के बीच ही होनी चाहिए। अष्टमी तथा नवमी महातिथि मानी जाती है। नवदुर्गा पाठ के बाद हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
जानें पर्व से जुड़ी परम्पराएँ और नियम
जानें नवरात्रि व्रत कथा
कथा− सुरथ नामक राजा अपना राजकाज मंत्रियों को सौंपकर सुख में रहता था। कालान्तर में शत्रु ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। मंत्री भी शत्रु से जा मिले। पराजित होकर राजा सुरथ तपस्वी के वेश में जंगल में रहने लगा। वहां एक दिन उसकी भेंट समाथि नामक वैश्य से हुई। वह भी राजा की तरह दुखी होकर वन में रह रहा था। दोनों महर्षि मेधा के आश्रम में चले गए। महर्षि मेधा ने उनके वहां आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यद्यपि हम लोग अपने स्वजनों से तिरस्कृत होकर यहां आए हैं लेकिन उनके प्रति हमारा मोह टूटा नहीं है। इसका कारण हमें बताइए−
महर्षि ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा कि मन शक्ति के अधीन है। आदिशक्ति भगवती के विद्या तथा अविद्या के दो रूप हैं। विद्या ज्ञान स्वरूपा है तो अविद्या अज्ञान रूपा। अविद्या मोह की जननी है। भगवती को संसार का आदिकरण मानकर भक्ति करने वाले लोगों का भगवती जीवन मुक्त कर देती हैं। राजा तथा समाधि नामक वैश्य ने देवी शक्ति के बारे में विस्तार से जानने का आग्रह किया तो महर्षि मेधा ने बताया कि कालान्तर में प्रलयकाल के समय क्षीर सागर में शेष शैया पर सो रहे भगवान विष्णु के कानों से मधु तथा कैटभ नामक दो राक्षस पैदा होकर नारायण की शक्ति से उत्पन्न कमल पर विराजित भगवान ब्रह्मा जी को मारने के लिए दौड़े।
इसके बाद महर्षि मेधा ने आदिशक्ति देवी के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा कि एक बार देवताओं तथा असुरों में सौ साल तक युद्ध छिड़ा रहा। देवताओं के स्वामी इन्द्र थे तथा असुरों के महिषासुर। महिषासुर देवताओं को पराजित करके स्वयं इन्द्र बन बैठा। पराजित देवता भगवान शंकर तथा भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे। उन्होंने आपबीती कहकर महिषासुर के वध के उपाय की प्रार्थना की। भगवान शंकर तथा भगवान विष्णु को असुरों पर बड़ा क्रोध आया। वहां भगवान शंकर और विष्णु जी तथा देवताओं के शरीर से बड़ा भारी तेज प्रकट हुआ। दिशाएं उज्ज्वल हो उठीं। एकत्रित होकर तेज ने नारी का रूप धारण कर लिया। देवताओं ने उनकी पूजा करके अपने आयुध तथा आभूषण उन्हें अर्पित कर दिए।
इस पर देवी ने जोर से अट्टहास किया, जिससे संसार में हलचल फैल गई। पृथ्वी डोलने लगी। पर्वत हिलने लगे। दैत्यों के सैन्यदल सुसज्जित होकर उठ खड़े हुए। महिषासुर दैत्य सेना सहित देवी के सिंहनाद की ओर शब्दभेदी बाण की तरह बढ़ा। अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर देने वाली देवी पर उसने आक्रमण कर दिया और देवी के हाथों मारा गया। यही देवी फिर शुम्भ तथा निशुम्भ का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से प्रकट हुई थीं।
कुपित होकर शुम्भ ने धूम्रलोचन को भगवती को पकड़ लाने के उद्देश्य से भेजा। देवी ने अपनी हुंकार से उसे भस्म किया और देवी के वाहन सिंह ने शेष दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उसी उद्देश्य से चण्ड−मुण्ड देवी के पास गए। दैत्य सेना को देखकर देवी विकराल रूप धारण कर उन पर टूट पड़ीं। चण्ड−मुण्ड को भी अपनी तलवार लेकर ‘हूं’ शब्द के उच्चारण के साथ ही मौत के घाट उतार दिया।
दैत्य सेना तथा सैनिकों का विनाश सुनकर शुम्भ क्रोधित हो गया। उसने शेष बची सम्पूर्ण दैत्य सेना को कूच करने का आदेश दिया। सेना को आता देख देवी ने धनुष की टंकार से पृथ्वी तथा आकाश को गुंजा दिया। दैत्यों की सेना ने कालान्तर में चंडिका, सिंह तथा काली देवी को चारों ओर से घेर लिया। इसी बीच दैत्यों के संहार तथा सुरों की रक्षा के लिए समस्त देवताओं की शक्तियां उनके शरीर से निकल कर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गईं।
जब अनेक दैत्य हार गए तो महादैत्य इतना कहकर चंडिका ने शूल से रक्तबीज पर प्रहार किया और काली ने उसका रक्त अपने मुंह में ले लिया। रक्तबीज ने क्रुद्ध होकर देवी पर गदा का प्रहार किया, परंतु देवी को इससे कुछ भी वेदना नहीं हुई। कालान्तर में देवी ने अस्त्र−शस्त्रों को बौछार से रक्तबीज का प्राणान्त कर डाला। प्रसन्न होकर देवतागण नृत्य करने लगे। रक्तबीज के वध का समाचार पाकर शुम्भ−निशुम्भ के क्रोध की सीमा नहीं रही। दैत्यों की प्रधान सेना लेकर निशुम्भ महाशक्ति का सामना करने के लिए चल दिया। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित युद्ध करने के लिए आ पहुंचा। दैत्य लड़ते−लड़ते मारे गए। संसार में शांति हुई और देवतागण प्रसन्न होकर देवी की स्तुति करने लगे।