लक्ष्त था एक बरस में पचास बच्चे बचाने का, किंतु उनकी मंज़िल लक्ष्य हासिल करना नहीं था। वो तो कम वक्त में अधिक से अधिक बच्चों को बचाना चाहती हैं। यही कारण है कि लापता बच्चों के मामले में वो दूसरे थाने के केस भी सुलझाया करती हैं। हम बात कर रहे हैं दिल्ली पुलिस की हेड कॉन्स्टेबल सीमा ढाका की।
बहादुर महिला सीमा ढाका उत्तर प्रदेश के बड़ौत की रहने वाली हैं। भाई प्राइवेट जॉब करता है और पिता पेशे से किसान हैं। सीमा ने बताया कि मैं अपने गांव की पहली युवती थी जो अकेले साइकिल से कॉलेज जाती थी। गांव से कॉलेज की दूरी करीब 6 किमी थी। कभी ऐसा भी वक्त आता था कि खेतों में एक भी मनुष्य नहीं दिखाई देता था। चारों तरफ सन्नाटा रहता था।
ऐसे में अगर किसी एक आदमी की निगाह भी मेरे पर पड़ जाती थी, तो जब तक मैं सुरक्षित जगह नहीं पहुंच जाती थी वो मेरी हिफाज़त करता था। गांव की यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी। मगर दिल्ली आकर मुझे यह सब देखने को नहीं मिला। यहां हर कोई अपने काम से काम रखता है।
बहादुर महिला अफसर ने बताया कि उनके ताऊ और बुआ के परिवार में बहुत सारे लोग टीचर हैं। इसी के चलते मैंने भी ऐसे विषय लिए कि मैं टीचर बन सकूं। लेकिन मजे ही मजे में दिल्ली पुलिस की भर्ती का फार्म भर दिया। पूरे विश्विद्यालय से केवल मेरा ही नंबर आया। तो मुझे लगा कि शायद मुझमें कुछ खास है और मैं कुछ अच्छा कर सकती हूं।
इसीलिए पुलिस में आ गई और 2006 में वर्दी पहन ली। फिर शादी भी एक पुलिसमैन अनिक ढाका से हो गई। अब और हिम्मत आ गई। पड़ोस के ही शहर शामली में सीमा की ससुराल है।
बहादुर महिला अफसर ने बताया कि मैं खुद 8 बरस के बच्चे की मां हूं। जब मैं किसी के बच्चे के गुम होने की बात सुनती हूं तो बहुत ही अजीब लगता है। मैं सहन नहीं कर पाती हूं कि किसी का बच्चा उससे बिछड़े। इसलिए एक बैठक के दौरान मैंने अपने अफसरों से गुमशुदा बच्चों को तलाशने वाली सेल में काम करने की इच्छा जाहिर की। खास बात यह है कि सभी अधिकारियों का मुझे पूरा सपोर्ट मिलता है।