UPRNN: 2015 के बाद से अब तक आडिट नहीं…इसलिए योगी सरकार पर उठ रहे सवाल

img

लखनऊ। आंकड़े बताते हैं कि यूपी राजकीय निर्माण निगम (UPRNN) की वर्ष 2015 के बाद से अब तक किसी एनुअल रिपोर्ट की आडिट नहीं कराई गई है। इसलिए सीएजी मामले की जांच नहीं कर पायी। सदन में यह बात रखी भी गई। पर नतीजा सिफर। नतीजतन पिछले कई वर्षों में निगम के द्वारा कराए गए करोड़ो रूपये के निर्माण कामों के लागत की तस्वीर साफ नहीं है।

high court lucknow

निगम की ही वेबसाइट पर राजधानी स्थित हाईकोर्ट के न्यू बिल्डिंग की लागत के आंकड़े मेल नहीं खा रहे हैं। उनके बीच करोड़ो रूपये का अंतर दर्ज है। प्रबंध निदेशक की तैनाती में भी कायदे कानूनों को पता नहीं चल रहा है। कम्पनीज एक्ट के नियमों के मखौल पर रेगुलेटिंग अथारिटी मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स मौन है। सपा सरकार से शुरू हुआ यह सिलसिला अब भी अनवरत वर्ष दर वर्ष जारी है। स्वतंत्र पत्रकार नवनीत चतुर्वेदी ने यह खुलासा करते हुए निगम में पल रहे भ्रष्टाचार की एसआईटी जांच की मांग की है।

police head quarter lko

नवनीत चतुर्वेदी का कहना है कि यह आंकड़े मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स से लिए गए हैं। उसके अनुसार 2015 के बाद से निगम की कभी भी कोई एनुअल रिपोर्ट ऑडिट नहीं हुइ है। जब ऑडिट हुआ ही नहीं है तो निर्माण निगम के द्वारा बताए जा रहे वर्षवार टर्नओवर की क्या प्रमाणिकता है? और यदि ये आंकड़े सही हैं तो अब तक एनुअल रिपोर्ट की आडिट क्यों नहीं हुई? खास यह है कि निगम ने कई मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज, हॉस्पिटल्स के साथ लखनऊ हाई कोर्ट की न्यू बिल्डिंग, डायल 100, सिग्नेचर बिल्डिंग समेत कई बड़े निर्माण कार्य कराए हैं।

बड़ा सवाल कितनी हाईकोर्ट न्यू बिल्डिंग की लागत कितनी

बड़ा सवाल उठता है कि हाई कोर्ट बिल्डिंग के निर्माण लागत कितनी है। निगम की वेबसाइट पर एक जगह 1386 करोड़, एक जगह 771 करोड़ और एक जगह 1500 करोड़ दर्ज है। इन तीनों आंकड़ों में सही आंकड़ा कौन है। दरअसल सच का पता तो तब चलेगा जब ऑडिट हो और ऑडिट 2015 के बाद से हुई नहीं है।

कौन प्रमाणित करेगा लोन चुका दिए हैं या बकाया हैं

मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स के अनुसार 2018 में यूपीआरएनएन ने सभी लोन की बकाया राशि चुका दी है। यानि कि अब निगम पर किसी लोन की राशि बकाया नहीं है। पर यूपीआरएनएन अपने अकाउंट्स की ऑडिट और एनुअल रिपोर्ट पेश नहीं कर रहा है, ऐसे में ऋण वास्तव में चुका दिए गए हैं या नहीं। यह कौन प्रमाणित करेगा ?

कम्पनीज एक्ट के नियमों का मखौल

मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स को दिए गए आंकड़ों में मौजूदा समय में राजन मित्तल प्रबंध निदेशक हैं। अन्य डायरेक्टर्स की नियुक्ति भी 2016 से 2018 के बीच हुई दिखती है। पर निगम की वेबसाइट पर बतौर प्रबंध निदेशक सत्य प्रकाश का नाम दर्ज है। यह जुलाई 2020 से प्रबंध निदेशक बने हैं। उसके पहले तक उत्तम कुमार गहलोत प्रबंध निदेशक थे। सवाल उठता है कि सत्यप्रकाश कौन हैं और कहां से बन गए वह प्रबंध निदेशक? यह साफ नहीं है। मानो कंपनीज एक्ट 2013 और कम्पनीज एक्ट 1956 के कुछ नए विशेष नियम यूपी सरकार में बने हुए हैं। यह कृत्य बकौल कम्पनीज एक्ट एक अपराध है बकायदा जेल और भारी जुर्माना लगता है।

सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक वर्षों से नहीं हुई आडिट

सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक राजकीय निर्माण निगम की ऑडिट वर्षो से नहीं हुई है, ऐसे में उनके पास जाँच करने के लिए कोई दस्तावेज है ही नहीं। विधानसभा में यह रिपोर्ट और आंकड़े रखे जा चुके हैं। उसके बावजूद सरकार में कोई भी तंत्र जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हो रहा है। मामला सभी उच्च अधिकारियो के संज्ञान में पहले से है।

गल्तियों पर पर्दा डाल रही योगी सरकार

अब राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो प्रथम दृष्टया गलती तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार की नजर आती है, उसके बाद योगी सरकार का साढ़े 3 साल से अधिक का कार्यकाल बीत चुका है। पर मौजूदा सरकार भी इस गलती को दुरस्त करने के बजाय पर्दा डाल रही है।

दो सियासी दलों में सीक्रेट पैक्ट तो नहीं?

यदि यह मामला भाजपा सरकार के संज्ञान में नहीं है तो वह अपने दायित्व नहीं निभा पा रहे हैं। यदि प्रकरण सरकार के संज्ञान में है तो छिपाया क्यों जा रहा है। आखिर दोनों राजनितिक दलों में अंदर से कोई सीक्रेट पैक्ट तो नहीं है?

मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स अधिक दोषी

उनका कहना है कि कंपनीज एक्ट 2013 के हिसाब से यदि लापरवाही और जिम्मेदारी तय की जाए तो मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉर्पोरेट अफेयर्स कही अधिक दोषी है, रेगुलेटिंग अथॉरिटी सुस्त है। वह अपना काम करे तो इस प्रकरण में निर्माण निगम के सभी डायरेक्टर्स विभिन्न धाराओं के अंतर्गत दोषी हैं और उन पर व्यक्तिगत हैसियत से लाखों का जुर्माना और कम से कम 3 साल की जेल हो सकती है।

आम आदमी की कम्पनी होती तो जेल में होते निदेशक

कानूनन निर्माण निगम की जगह यदि किसी आम आदमी की कंपनी होती तो अब तक एमसीए उसे शैल कंपनी कहते हुए बंद कर देता और डायरेक्टर्स जेल में होते। नियमों के मुताबिक कम्पनीज एक्ट 2013 के अनुसार यह कंपनी बंद होनी चाहिए। यदि कानून अपना काम करे तो निर्माण निगम से जुड़े सैकड़ो कर्मचारी तुरंत बेरोजगार हो जायेंगे। इन सब का जिम्मेदार कौन होगा।

…इसलिए आडिट से बच रही सरकार

उनका कहना है कि आडिट होते ही यह साफ हो जाएगा कि निगम से कितने करोड़ के कॉन्ट्रैक्ट कहाँ—कहाँ गए हैं। उस समय तत्कालीन सत्ताधारी दल से निगम के निदेशक के क्या रिश्ते हैं। यह जाहिर न हो सके। इसलिए निगम एनुअल रिपोर्ट की आडिट से बच रहा है। योगी सरकार भी उसी परिपाटी को आगे बढ़ा रही है।

Related News