जम्मूद्वीप के भरतखण्ड में हर दिन और हर पल उत्सव मनाया जाता है। सभी उत्सवों की अपनी महत्ता है। इन्हीं उत्सवों में एक उत्सव है वट सावित्री उत्सव। भारतीय संस्कृति में यह नारी के संकल्प और साहस का प्रतीक का पर्व है। इसके साथ यमराज से अपने पति के प्राण वापस लेने वाली देवी सावित्री की पावन कथा जुडी है। इस दिन सुहागिन महिलायें अपने पति एवं परिवार की दीर्घायु और स्वास्थ्य के लिए निर्जला व्रत रखती है, और वट वृक्ष की पूजा करती हैं। इसलिए यह प्रकृति के सम्मान और सरक्षण का भी पर्व माना जाता है।
वैसे तो यह पर्व पुरे भारत में मनाया जाता है लेकिन उत्तर भारत में इस व्रत की बहुत अधिक मान्यता है। इस वर्ष यह 10 जून को पड़ रहा है। आमतौर पर इसे ज्येष्ठ कृष्णपक्ष त्रयोदशी से अमावस्या तक अर्थात तीन दिन तक मनाने की परम्परा है, लेकिन देश के कुछ हिस्सों में एक दिन की निर्जल पूजा होती है। दक्षिण भारत में वट पूर्णिमा के नाम से इसे जेठ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस पर्व का सबसे प्राचीन उल्लेख महाभारत के वन पर्व में मिलता है। ऋषि मार्कंडेय युधिष्ठिर को सावित्री के त्याग की कथा सुनाते हैं। इसके अलावा स्कंद पुराण व भविष्योत्तर पुराण में भी वट सावित्री व्रत का विस्तार से उल्लेख मिलता है।
इस दिन सुहागिने सुबह प्रातः जल्दी उठकर स्नान कर लाल या पीले रंग के वस्त्र धारण कर वट वृक्ष की नीचे जाती हैं। वट वृक्ष के नीचे के पूजा स्थान को अच्छे से साफ कर सावित्री-सत्यवान की मूर्ति स्थापित करती हैं। इसके बाद वट वृक्ष को जल, पुष्प, अक्षत एवं मिठाई चढ़ाती हैं। इसके बाद वृक्ष में रक्षा सूत्र बांधकर और सात बार परिक्रमा कर पति एवं परिवार के दीर्घायु और निरोग होने का आशीर्वाद मांगती हैं। व्रती सुहागिने इसके बाद हाथ में काले चने लेकर इस व्रत की कथा सुनती हैं।