दुनिया की सभी प्राचीन संस्कृतियों में देव उपासना है। देवों के प्रति श्रद्धा है। सुख और कल्याण के लिए उनसे प्रार्थनाएं भी की जाती रही हैं। देव स्तुतियों से होने वाले भौतिक लाभ का विषय अक्सर बहस में रहता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ही मान्यता देने वाले विद्वान देवों को अंधविश्वास मानते हैं। यह विषय वास्तव में बहस का है, लेकिन दुनिया के बड़े हिस्से में देवोपासना है। भारतीय परम्परा में भी लाखों देवता हैं। भारत के लगभग हर गाॅंवों में ग्राम देवता भी हैं। महानगरों का आधुनिक समाज भी भिन्न-भिन्न देवों की उपासना करता है। ऋग्वेद में अनेक देवों के उल्लेख हैं। भारत में देवतंत्र का लगातार विकास हुआ है।
यूरोपीय विद्वानों ने भारत के वैदिक देवतंत्र को पिछड़ा और अविकसित बताया है। उनके अनुसार यूनानी देवताओं की आकृतियाँ सुव्यवस्थित हैं और भारतीय वैदिक देवों की आकृतियाँ पूर्ण विकसित नहीं है। इसका कारण देवतंत्र का अविकसित होना नहीं है। इसका मूल वैदिक दर्शन में है। वैदिक ऋषियों ने सृष्टि को एक अविभाज्य सत् देखा था। सो उन्होंने असीम आकार और रूप वाले देवों की व्याप्ति भी ससीम की है।
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भारत में इस परंपरा का सतत् विकास भी हुआ है। गयाचरण त्रिपाठी ने ‘वैदिक देवता उद्भव और विकास’ से देवतंत्र पर परिश्रमपूर्ण शोध ग्रंथ लिखा है। त्रिपाठी ने प्रथम संस्करण (1962) की भूमिका में लिखा है, “संसार के अन्य किसी भी देश में देवों के स्वरूप के विकास का सहस्त्रों वर्ष लम्बा इतिहास और देवकथाओं के विकास की इतनी लम्बी परम्परा प्राप्त नहीं होती जितनी भारत में। सहस्त्रो वर्ष पूर्व वैदिक ऋषियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि, निरीक्षण क्षमता एवं कल्पना शक्ति ने जिन देवों की उद्भावना की थी, उनके स्वरूप का आने वाली पीढ़ियों के हाथों से क्रमशः परिवर्द्धन एवं परिवर्तन होता चला गया और एक चित्रात्मक, वैविध्यपूर्ण तथा सजीव देवशास्त्र का जन्म हुआ। वैदिक देवों के विकास की इसी अविच्छिन्न परम्परा को ध्यान में रखकर ही प्राचीन समय में यह विश्वास था कि वेदों के वास्तविक तात्पर्य को जानने के लिए इतिहास (महाभारत) तथा पुराणादिकों का अध्ययन करना चाहिए।”
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भारत के सांस्कृतिक इतिहास में देव मान्यता की अविच्छिन्न परंपरा है। वैदिक देवताओं की मान्यता का प्रसार भारत से बाहर जापान और कोरिया तक रहा है। दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े भाग में इनका सांस्कृतिक प्रभाव पहुंचा है। कम्बोडिया का अंकोरवाट विष्णु मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। विष्णु ऋग्वेद अथर्ववेद के प्रतिष्ठित देवता हैं। बैंकाक में प्रजापति ब्रह्मा के अनेक मंदिर हैं। प्रजापति अथर्ववेद के अनेक मंत्रों में उपास्य हैं। लंदन में मैंने स्वयं श्रीराम मंदिरों के दर्शन किए हैं। भारतीय देवतंत्र विश्व अध्येयताओं का प्रिय विषय रहा है। वैदिक देवतंत्र का विकास पुराणों में है। पुराणों में देवों का मानवीकरण ज्यादा है। लेकिन पुराणों के बाद भी देवों के रूप स्वरूप का विस्तार जारी ही रहा है।
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अथर्ववेद के ऋषियों की तरह लेबनानी अमेरिकी चिंतक खलील जिब्रान ने 1931 में “दि अर्थ गाड्स” नामक किताब लिखी थी। उन्होंने पृथ्वी में प्रवाहित तमाम भावनाओं को देवता कहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आधुनिक काल में यह नई देव अनुभूति है। उन्होंने दि प्राफेट, दि मैडमैन और टियर्स एण्ड लाफ्टर आदि 12 पुस्तकों में ऐसी ही अनुभूतियां प्रकट की हैं। ‘दि अर्थ गाड्स’ अथर्ववेद के पृथ्वी स्थानीय व भाववृत्त देवों से तुलनीय है। वैदिक देवता सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति वाले केन्द्र हैं ही।
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आनंद स्वयं दिव्यता है। ‘आनंद’ सबसे बड़ा देवता है। संसार के सभी कर्मों का उद्देश्य आनंद प्राप्ति है। उपासक सभी देवों से आनंद मांगते हैं। योग, ध्यान, और कर्म आनंद के ही उपकरण हैं। ईश्वर विश्वासी ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति मार्ग चुनते हैं। ईश्वर भी अंततः आनंद ही है। आनंद दिव्य अनुभूति है। क्या हम आनंद को अथर्ववेद के देवों की श्रेणी में आधुनिक देवता जान सकते हैं? उनसे स्तुति हो सकती है, “हे आनंद! आप आनंद से भरे पूरे हैं। आप शोक तनाव से मुक्ति दें। हम सबको आनंद से आपूरित करें।” आनंद दिव्यता है। यह प्रकाशवाची भी होती है। प्रकाश के माध्यम से हम जगत् देखते हैं। जगत् के रूपों से जुड़ते हैं। लेकिन आनंदवर्द्धन भी होती है। आनंद उपास्य है। आनंद प्राकृतिक है, भौतिक है और आध्यात्मिक भी है।
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प्रकाश भी महत्वपूर्ण है। प्रकाश के सभी स्रोत व अभिव्यक्ति केन्द्र देवता हैं। वैदिक देवता अंध विश्वास नही हैं। वे प्रकृति के अंग हैं, प्रकृति की ही दिव्यशक्ति हैं। सूर्य, अग्नि, जल, वायु आदि प्रत्यक्ष भूत अंधविश्वास कैसे हो सकते हैं? वे ऋषियों की काव्य कल्पना नही हैं। अंतःकरण में भाव उठते हैं। भावों के प्रतिवादी विचार भी उठते हैं। बुद्धि में तर्क प्रतितर्क का मंथन चलता है। इस मंथन से विवेक का रस प्राप्त होता है। ऐसे भाव भी देवता हैं। श्रद्धा, मन्यु या साहस भी अथर्ववेद के देवता हैं। यास्क ने तर्क को भी देवता बताया है। वैदिक देव जीवन के व्यावहारिक पक्ष में सर्वत्र उपस्थित हैं। वे बोध यात्रा की आंतरिक प्रस्थान ऊर्जा हैं।
(लेखक-हृदयनारायण दीक्षित– वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)