आजाद हिन्द फौज और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध

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क्रांतिकारी सुभाषचंद्र बोस का लक्ष्य भारत की आज़ादी था। वह जननेता और कूटनीतिज्ञ थे। जिस समय सुभाष ने कांग्रेस छोड़कर फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया, संयोग से उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध भी प्रारंभ हो गया। सुभाष की रणनीति थी कि जब अंग्रेज़ द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसे हैं तभी उनकी राजनितिक अस्थिरता का फ़ायदा उठाते हुए देश को स्वतंत्र करा लिया जाए। उनको दृष्टि में अब भारतियों को युद्ध की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

Laxmi Sehgal and Subhash Chandra Bose

सुभाष ने भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल किए जाने का भी विरोध किया। इसपर ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल कर दी, इसके बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें जेल से निकालकर उनके ही घर में नज़रबंद किया। इसी दौरान सुभाष भारत से फरार हो गए और अपने साथी भगतराम के साथ 31 जनवरी, 1941 को काबुल जा पहुँचे। काबुल पहुँचने के बाद 3 अप्रैल, 1941 को जर्मन मंत्री पिल्गर के सहयोग से मास्को होते हुए हवाई जहाज से बर्लिन पहुंच गये।

बर्लिन में सुभाष ने जर्मन सरकार के सहयोग से ‘वर्किंग ग्रुप इंडिया’ की स्थापना की, जो कुछ ही समय बाद ‘विशेष भारत विभाग’ में तब्दील हो गया। जर्मनी में उन्होंने युद्ध का मोर्चा देखा और प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। यहां पर उन्‍होंने देश के बाहर रहने वाले भारतीयों को संगठित कर उन्‍हें देश की स्‍वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध किया।

इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस ने 17 जनवरी, 1941 को बर्लिन रेडियो से अपना ऐतिहासिक भाषण दिया और भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जर्मन सरकार ने उनके साहस और शौर्य को देखते हुए उन्हें ‘फ्यूचर ऑफ इण्डिया’ के खिताब से नवाजा। इसी के साथ वे ‘नेताजी’ कहलाने लगे। इस दौरान सुभाष जर्मनी के तानाशाह हिटलर से भी मिले, लेकिन हिटलर से उन्हें निराशा ही मिली।

सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी में रहना उचित नहीं समझा और वर्ष 1943 में जर्मनी को छोड़ दिया। वह जापान होते हुए सिंगापुर जा पहुंचे। उन्होंने यहां पर कैप्टन मोहन सिंह द्वारा गठित ‘आजाद हिन्द फौज’ की कमान अपने हाथों में ले ली। यहीं पर नेताजी ने महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस की सहायता से 60,000 भारतीयों की ‘आजाद हिन्द फौज’ गठित की।

इसके साथ ही नेताजी ने 21 अक्तूबर, 1943 को स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार स्थापित कर दी। इस अस्थायी सरकार के ध्वज पर दहाड़ते हुए शेर को अंकित किया गया। नेताजी ने महिला ब्रिगेड ‘झांसी रानी रेजीमेंट’ का गठन किया और लक्ष्मी सहगल को इस रेजीमेंट की कैप्टन बनाया।

Subhash Chandra Bose

नेताजी सुभाष चंद्र बोस 4 जुलाई, 1944 को, आजाद हिन्द फौज के साथ बर्मा पहुंचे। वर्मा में ही नेताजी ने अपने ऐतिहासिक और ओजस्वी संबोधन के साथ प्रसिद्ध नैरा दिया ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’

उनके इस नारे ने नौजवानों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया। हजारों नौजवान आजादी के यज्ञ में प्राणों की आहुति देने के लिए उतावले हो उठे। जनरल शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ाते हुए भारत में लगभग 20,000 वर्गमील के क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा लिया।

दुर्भाग्यवश, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने 6 अगस्त, 1945 को जापान के प्रमुख शहर हिरोशिमा और 9 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिये गए, जिससे जापान, इटली आदि देशों को घुटने टेकने के लिए विवश होना पड़ा। जापान की पराजय की वजह से आजाद हिन्द फौज को भी अपने मिशन में विफलता का सामना करना पड़ा।

इसके बावजूद नेताजी ने आजादी हासिल करने के लिए निरन्तर प्रयास जारी रखा। इन्हीं प्रयासों के तहत वे मदद के लिए रूस भी गए, लेकिन कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। देश को स्वतंत्र कराने के अपनी मुहीम के सिलसिले में नेताजी 17 अगस्त, 1945 को हवाई जहाज से मांचूरिया के लिए रवाना हुए।

23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताईवान के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। इस समाचार को सुनकर हर कोई शोक के अनंत सागर में डूब गया। हालांकि उनकी मौत को लेकर आज भी संशय बना हुआ है।

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