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लखनऊ।। देश में वर्तमान में शिक्षा की जो दुर्गति हो रही है, ऐसा कभी नहीं रहा होगा। इसे बेरोजगारी की मार कहें या विकास की अंधी चाहत। एक नौनिहाल एक ही दिन में दो दो बार स्कूल जाता है। हर अभिभावक चाहता है कि हमारा बच्चा ज्यादा से ज्यादा समय स्कूल में दे और वह पूर्ण रूप से पारंगत हो जाये । लेकिन विकास की इस अंधी दौड़ में हम दोस्तों के साथ विचार शेयर करने का हक और उनका बचपन छीन रहे हैं। छीन रहे हैं तो बुजुर्गों का अनुभव व आशीर्वाद, छीन रहे हैं तो वह भौतिक सुख, जो खेलने कूदने के बहाने बाहर निकलने और उछलकूद व धमाचौकड़ी मचाने से मिलता था।

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घड़ी की टिकटिकी से चलता

आज लगभग हर बच्चा किताब में इस कदर डूबा रहता है कि सूर्योदय और सूर्यास्त का पता केवल मोबाइल या घड़ी की टिकटिकी से चलता है। उसके बाद जो समय बचता है वह मोबाइल में उंगलियां फेरते ही गुजर जाता है।

ऐसा नहीं है कि सरकारी व्यवस्था या हमारा तंत्र ऐसा चाहता है कि कोई बच्चा दो बार स्कूल जाए। सरकारी उदासीनता और बेरोजगारी इसमें चार चांद लगाती रहती है। ऐसा नहीं है कि स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापक कम योग्य हैं या नहीं पढ़ाते, किंतु दूसरे स्कूल जाना ज्ञान की चाहत नहीं फैशन में शुमार हो चुका है।

पूर्व काल में यह व्यवस्था ऐसी थी कि किसी बच्चे को किसी विषय में या कहीं समस्या होती थी तो वह पास पड़ोस वालों से, किसी दुकान पर बैठे लोगों से या गलियों से गुजरते हुए अध्यापकों से ही 2मिनट का टाइम लेकर समस्या का निदान कर लेता था। इसके साथ यह भी था कि वे लोग खुशी खुशी ऐसा करने के लिए तैयार भी होते थे। किसी के पास समय का अभाव नहीं होता था।

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आज ऐसा नहीं कि लोगों के पास समय का अभाव है, किंतु विकास को संस्कारों व सम्मान के बदले आर्थिक सक्षमता से जोड़ दिया गया है। ज्यादा से ज्यादा धन की चाहत में कुछ शिक्षक तो अधिकांश बेरोजगार कोचिंग रुपी दूसरे स्कूल की मंडी सजाये बैठे रहते हैं।

वे कुछ ही घंटों में स्कूल से ज्यादा देने का ठेका ले लेते हैं। यहां यह समझना होगा कि कोचिंग वह विधा है जिसमें विशेष सीख या समझने की दक्षता प्रदान की जाती है। ऐसी दक्षता कम से कम स्कूलों की पढ़ाई की पुनरावृति की नहीं हो सकती।

कोचिंग संस्थानों में वह कोचिंग संस्थान जो विशेष कौशल प्रदान करने के लिए खुले हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए या खेल की विधा को निखारने के लिए या किसी विशेष विषय को पढ़ाने के लिए तो उनका औचित्य समझ में आता है।

वह कोचिंग संस्थान जहां पर पूर्णरूपेण वही स्कूली पढ़ाई दुबारा रिपीट की जाती है। वह केवल अभिभावकों की संतुष्टी, बच्चों को बेवकूफ बनाने व बेरोजगारों द्वारा धन अर्जन का माध्यम ही है और कुछ नहीं।

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यदि किसी बच्चे को किसी विषय में समस्या है तो वह उस विषय की पढ़ाई के लिए कोचिंग का सहारा ले सकता है। ऐसी समस्या निदान के प्रयास को सीखने की ललक कहेंगे, किंतु कुकुरमुत्ते की तरह खुले हुए कोचिंग संस्थानों में सभी विषय पढ़ाए जाते हैं।

बच्चा व अभिभावक ऐसे संस्थान ज्वाइन करना सौभाग्य की बात समझते हैं। ऐसी विधा पर आज अंकुश लगाने की आवश्यकता है जो स्कूल के दूसरे रूप में परिवर्तित हो चुके हैं। जहां तक बेरोजगारों के द्वारा धन अर्जन की बात है तो वह किसी विषय विशेष में ही पारंगत होते हैं।

बच्चों को पढ़ा कर धन अर्जन भी कर लेंगे

अतः सरकार को स्कूल स्तर की सभी कोचिंग को केवल विषयवार ही मान्यता देनी चाहिए। ऐसी मान्यता से सरकार को कोचिंग से मिलने वाली मामूली रजिस्ट्रेशन शुल्क में वृद्धि होगी। किसी भी विषय के दक्ष लोग स्वयं के विषय में आवश्यकतानुसार बच्चों को पढ़ा कर धन अर्जन भी कर लेंगे।

ऐसे में बच्चे व अभिभावक भागदौड़ से बचने के लिए उसी विषय को पढ़ना चाहेंगे जिसमें उन्हें नितांत आवश्यकता होगी। इस प्रकार बच्चों का समय बचेगा व घर के बुजुर्गों के साथ, दोस्तों के साथ तथा खेल मैदान पर कुछ समय बिता सकेंगे।

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उनका बचपना समाप्त नहीं होगा। आज बच्चों को विषय ज्ञान के अतिरिक्त हमें वह सब सीख देने की जरूरत है, जो बचपन में ही दी जा सकती है। सभी को यह समझना होगा कि समय ही सबसे बड़ी पूंजी होती है। यदि बच्चों का समय हम बचा सकते हैं तो उन्हें भविष्य का सब कुछ देने में सफल हो जायेंगे।

अतः स्कूली स्तर की सभी विषयों की पढ़ाई कराने वाली कोचिंग संस्थानों को बंद करना चाहिए तथा विषयवार को ही स्वीकार करना चाहिए।
अरविन्द विश्वकर्मा-शिक्षक

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