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जब किसी नागरिक को संकट हो तो वह सबसे पहले किसे पुकारता है जाहिर है पुलिस को मगर क्या हो अगर वही पुलिस खुद भय का कारण बन जाए क्या हो अगर वही पुलिस जिसे न्याय की मूर्ति माना जाता है वह यातना और टॉर्चर को अपराध रोकने का ज़रिया मानने लगे

सामाजिक संस्था कॉमन कॉज और शोध संस्थान सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज सीएसडीएस ने 2025 की जो रिपोर्ट जारी की है वह हमें उसी आईने के सामने खड़ा करती है जिसे हम अक्सर देखने से बचते हैं। 'भारत में पुलिस व्यवस्था की स्थिति 2025' नाम की इस रिपोर्ट में ऐसे आंकड़े सामने आए हैं जो चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला देने वाले हैं

इस रिपोर्ट के मुताबिक 2011 से 2022 के बीच पुलिस हिरासत में 1100 लोगों की मौत हुई मगर किसी एक भी मामले में अब तक किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हैं। मगर इससे भी ज्यादा खतरनाक वह सोच है जो इस सिस्टम के भीतर मौजूद है

पुलिस में टॉर्चर को लेकर क्या सोच है

रिपोर्ट कहती है कि दो-तिहाई पुलिसवाले यातना देने को जायज़ मानते हैं। 30 फीसदी इसे पूरी तरह सही मानते हैं जबकि 32 फीसदी इसे कुछ हद तक उचित मानते हैं। केवल 15 फीसदी ऐसे थे जो किसी भी हाल में यातना देने को गलत मानते हैं

और यह सोच सिर्फ निचले स्तर तक सीमित नहीं है। आईपीएस स्तर के अधिकारी भी इस मानसिकता से अछूते नहीं हैं। झारखंड और गुजरात के पुलिसकर्मियों में टॉर्चर को लेकर सबसे ज्यादा समर्थन देखा गया जबकि केरल और नगालैंड जैसे राज्यों में पुलिसकर्मी यातना के खिलाफ नज़र आए

थर्ड डिग्री को क्यों मानते हैं जरूरी

30 फीसदी पुलिस अफसर मानते हैं कि गंभीर अपराध को सुलझाने के लिए 'थर्ड डिग्री' यातना जरूरी है। थर्ड डिग्री यानी पैरों के तलवे पर मारना अंगों पर मिर्ची पाउडर छिड़कना या आरोपी को उल्टा लटकाना जैसे तरीके जो कानून में पूरी तरह प्रतिबंधित हैं मगर पुलिस व्यवस्था के भीतर अब भी 'जरूरी तकनीक' माने जाते हैं

एनकाउंटर को लेकर क्या सोच है

22 फीसदी पुलिसकर्मियों का मानना है कि खतरनाक अपराधियों को अदालत में पेश करने की जगह उनका एनकाउंटर कर देना ज्यादा असरदार है यानी कानून की प्रक्रिया को बायपास करना उन्हें 'समाज की भलाई' लगती है। हालांकि 74 फीसदी पुलिसकर्मी अब भी मानते हैं कि कानून का पालन जरूरी है मगर यह बात भी चिंताजनक है कि हर पांच में से एक पुलिसकर्मी न्याय से पहले मौत को तवज्जो देता है

पुलिस व्यवस्था या पावर स्ट्रक्चर

इस सर्वे से एक बात स्पष्ट है कि हमारी पुलिस व्यवस्था एक पावर-स्ट्रक्चर में तब्दील हो गई है जहां 'न्याय' से ज्यादा जोर 'नतीजे' पर है और यह प्रक्रिया लोकतंत्र को कमजोर करती है। एक तरफ जनता की उम्मीदें दूसरी तरफ अफसरों की हठधर्मिता और राजनीतिक दवाब मिलकर पुलिस को एक 'काली चादर' में लपेट रहे हैं

क्या यह वक्त नहीं है कि हम सिर्फ पुलिस रिफॉर्म की बात न करें बल्कि पुलिस की सोच उसकी ट्रेनिंग और उसकी जवाबदेही पर भी दोबारा विचार करें। जब तक पुलिस खुद को कानून से ऊपर मानती रहेगी तब तक न्याय एक भ्रम ही रहेगा