
भारतीय संस्कृति की जड़ों में रचे-बसे विवाह संस्कार जब सामाजिक समरसता और सेवा की भावना से जुड़ते हैं, तो वे केवल रस्में नहीं रह जाते—वो बन जाते हैं प्रेरणा का माध्यम। ऐसा ही कुछ देखने को मिला वाराणसी के खोजवां क्षेत्र में, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अक्षय कन्यादान महोत्सव में पिता की भूमिका निभाकर एक भावुक और अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
इस कार्यक्रम की सबसे खास बात यह थी कि इसमें समाज के हर वर्ग—सवर्ण, दलित और पिछड़े—से आए 125 जोड़ों का वैदिक रीति-रिवाजों से विवाह संपन्न हुआ। यह आयोजन केवल एक सामूहिक विवाह नहीं था, बल्कि भारतीय समाज के भीतर फैली दूरी को पाटने और एकता का पुल बनाने की सशक्त कोशिश थी।
बेटी का पांव पखार कर किया कन्यादान: मोहन भागवत का संवेदनशील पक्ष
डॉ. मोहन भागवत ने इस समारोह में सिर्फ मुख्य अतिथि की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि एक पिता की तरह रजवंती नाम की वनवासी कन्या का विधिवत कन्यादान किया। शंकराचार्य पोखरे पर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच उन्होंने बेटी के पांव पखारे, कन्यादान का संकल्प लिया और विवाह की प्रत्येक रस्म को गहराई से निभाया।
रजवंती की शादी सोनभद्र के रेणुकूट निवासी अमन नामक युवक से हुई, जो आदिवासी समुदाय से आते हैं। भागवत ने नवविवाहित जोड़े को 501 रुपये का नेग दिया और दूल्हे अमन को भावनात्मक रूप से आशीर्वाद देते हुए कहा, “मेरी बेटी को खुश रखना, उसका ध्यान रखना।”
इस दृश्य ने कार्यक्रम को सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि मानवीय और भावनात्मक ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। एक बड़े संगठन के मुखिया का इतने सरल और भावपूर्ण तरीके से पिता की भूमिका निभाना समाज को सोचने पर मजबूर करता है कि संस्कारों की सच्ची शिक्षा कहाँ से मिलती है।
भव्य बारात, परंपराओं का उत्सव और सामाजिक सौहार्द का संगम
125 दूल्हों की बारात द्वारकाधीश मंदिर से खोजवां तक निकली। पारंपरिक घोड़ों, बग्घियों और बैंड-बाजे के साथ निकली यह बारात एक चलते-फिरते सांस्कृतिक उत्सव की तरह थी। रास्ते भर लोगों ने पुष्पवर्षा की, जलपान कराया और उत्साहपूर्वक स्वागत किया।
इस पूरे आयोजन में एक महत्वपूर्ण संदेश यह भी था कि भारतीय समाज में रीति-रिवाजों को केवल जाति या धर्म के दायरे में नहीं बांधा जाना चाहिए। जहां एक ओर सवर्ण समाज के लोग मौजूद थे, वहीं दलित और पिछड़े वर्ग से आए नवदंपतियों को भी बराबरी का सम्मान और मंच मिला।
यह दृश्य एक जीवंत प्रमाण था कि जब समाज के सभी वर्ग मिलकर रीति-रिवाजों में भाग लेते हैं, तो असल में वह संस्कृति जीवित होती है, जिसे हम 'भारतीयता' कहते हैं।
समाज के विशिष्ट नागरिकों की भूमिका: हर कन्या के लिए बना एक पिता
कार्यक्रम में 125 वेदियों पर विवाह संपन्न हुए और हर वेदी पर किसी न किसी विशिष्ट नागरिक ने कन्यादान की जिम्मेदारी निभाई। इसमें उद्योगपति, शिक्षाविद, डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता और स्थानीय प्रतिनिधि शामिल थे। यह बात अपने आप में खास थी कि हर कन्या को एक पिता मिला और हर दंपति को आशीर्वाद।
उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी इस अवसर पर नवविवाहित जोड़ों को शुभकामनाएं दीं और विवाह को केवल दो लोगों का नहीं, बल्कि दो परिवारों और समाज के मेल का अवसर बताया।
यह एक ऐसी पहल थी जो बताती है कि सामाजिक जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक की है।
मोहन भागवत का संदेश: “परिवार समाज की इकाई, सीमित न करें इसे”
महोत्सव को संबोधित करते हुए डॉ. भागवत ने एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही—“परिवार केवल पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित नहीं होता। यह समाज की एक ईकाई है और हर परिवार को समाज के उत्थान में योगदान देना चाहिए।”
उन्होंने कन्यादान करने वाले ‘अभिभावकों’ से आग्रह किया कि वे नवविवाहित जोड़ों से साल में कम से कम एक-दो बार मिलें, उनकी समस्याएं जानें और एक सामाजिक दायित्व की तरह उन्हें मार्गदर्शन दें।
यह सोच उस भारतीय जीवन दर्शन को साकार करती है जिसमें परिवार और समाज को अलग नहीं माना जाता, बल्कि एक-दूसरे का पूरक समझा जाता है।
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