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Up Kiran Digital Desk: भारत में जाति सर्वेक्षण को लेकर दशकों से विवाद और बहस चल रही है। अब एक नए मोड़ पर आ खड़ा है। ये मुद्दा अब सिर्फ एक सांस्कृतिक या सामाजिक विचारधारा का सवाल नहीं रहा बल्कि भारतीय राजनीति का एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है। 1941 में जब अंतिम बार जाति-वार डेटा एकत्रित किया गया था तब देश द्वितीय विश्व युद्ध के संकटों से जूझ रहा था और यह डेटा कभी प्रकाशित नहीं हुआ। इसके बाद भारत में जाति गणना पर हर सरकार की चुप्पी बनी रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकारों ने केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गणना पर ध्यान केंद्रित किया जिससे सामान्य जातियों और अन्य वर्गों के बारे में कोई स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाए।
हालांकि इस संदर्भ में सबसे अहम सवाल यह है कि क्यों यह मुद्दा अब अचानक इतना महत्वपूर्ण बन गया है और क्यों भाजपा जो पहले जाति सर्वेक्षणों को खारिज करती रही है अब इसे आगे बढ़ाने की ओर बढ़ रही है।
बीजेपी का पलटवार और इसका राजनीतिक संदर्भ
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए यह कदम एक बड़ा आश्चर्य साबित हो रहा है क्योंकि पार्टी ने दशकों तक इस मुद्दे को लेकर चुप्पी साधी थी और राज्य स्तर पर जाति सर्वेक्षणों को हमेशा विभाजनकारी कदम के रूप में खारिज किया था। विशेष रूप से बिहार तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां विपक्षी सरकारें हैं बीजेपी ने जाति आधारित सर्वेक्षणों का विरोध किया था।
मगर अब एक समय ऐसा आया है जब बीजेपी ने इस मुद्दे को अपने हाथों में लिया है। यह बदलाव कुछ संयोग नहीं लगता। जैसे कि हमारे वरिष्ठ सहयोगी विकास पाठक और लिज़ मैथ्यू ने रिपोर्ट किया यह पलटवार पहलगाम हमले के बाद हुआ है। इस हमले ने सरकार को एक नया राजनीतिक बल प्रदान किया जिसके बाद जनता और विपक्ष दोनों का समर्थन सरकार के पक्ष में था। इस मजबूत स्थिति का फायदा उठाते हुए बीजेपी अब जाति गणना को आगे बढ़ाने के लिए तैयार है एक कदम जिसे वह पहले कभी उपहास करती रही थी।
कांग्रेस का दृष्टिकोण और सवाल
इस नए कदम पर विपक्ष खासकर कांग्रेस ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। राहुल गांधी ने इसे अपनी दूरदर्शिता की जीत बताया है। उन्होंने कहा कि यह कदम यह दर्शाता है कि विपक्ष सरकार पर दबाव डाल सकता है। हालांकि गांधी ने भी इस कदम पर सवाल उठाया है खासकर यह देखते हुए कि 2021 की जनगणना पहले ही विलंबित हो चुकी है। उनका सवाल सीधा था: "यह अभ्यास कब शुरू होगा?"
कांग्रेस का मानना है कि जाति सर्वेक्षण से मिलने वाले डेटा का उपयोग कल्याणकारी गतिविधियों और योजनाओं के निर्माण में किया जा सकता है। उनका तर्क यह है कि जब तक जाति आधारित डेटा नहीं होगा तब तक सरकार के लिए सही और उचित योजनाओं का निर्माण करना मुश्किल होगा।
जाति गणना का ऐतिहासिक महत्व
भारत में जाति गणना को लेकर इतिहास में कई मोड़ आए हैं। 1941 में ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में जाति-वार डेटा एकत्रित किया गया था मगर स्वतंत्रता के बाद इसे कभी प्रकाशित नहीं किया गया। इसके बाद सरकारों ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जिससे जाति आधारित डेटा का एक बड़ा अंतर पैदा हो गया। इस अंतर को भरने की आवश्यकता को बार-बार महसूस किया गया खासकर समाज के सबसे कमजोर वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की सही पहचान और वितरण के लिए।
इस संदर्भ में श्यामलाल यादव एक इतिहासकार बताते हैं कि जाति गणना का उद्देश्य केवल सामाजिक न्याय के लिए नहीं बल्कि समाज की वास्तविक स्थिति को समझने और सटीक योजनाओं को लागू करने के लिए भी था। जब तक सरकार के पास जाति आधारित डेटा नहीं होगा तब तक उसे यह समझने में कठिनाई होगी कि समाज के कौन से वर्ग सबसे अधिक जरूरतमंद हैं।
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