Up Kiran, Digital Desk: दुनिया जानती है स्विट्जरलैंड को अपनी बर्फीली वादियों, चॉकलेट और घड़ियों के लिए। लेकिन इस छोटे से देश की असली ताकत उसकी सैन्य तटस्थता में छुपी है। पांच सौ साल से ये देश किसी जंग में नहीं कूदा। न अमेरिका का साथ दिया, न रूस का। बस अपनी रक्षा के लिए एकदम तैयार रहता है।
पर अब सवाल उठ रहा है कि आखिर तटस्थ रहने वाला देश अपनी फौज को और मजबूत क्यों करना चाहता है?
दरअसल बात 1515 की है। उस वक्त स्विस सैनिक पूरे यूरोप में सबसे खतरनाक माने जाते थे। पैसे लेकर किसी के लिए भी लड़ते थे। पोप की सुरक्षा तक स्विस गार्ड करते थे (आज भी करते हैं)। लेकिन बैटल ऑफ मेरिग्नानो में फ्रांस ने दस हजार से ज्यादा स्विस सैनिक मार डाले। वो हार इतनी भयानक थी कि स्विस नेताओं ने ठान लिया – बस बहुत हुआ। अब हम किसी के झगड़े में नहीं पड़ेंगे।
धीरे-धीरे यही सोच देश की पहचान बन गई। 1648 में वेस्टफेलिया की संधि के वक्त पूरी दुनिया ने स्विट्जरलैंड की तटस्थता को आधिकारिक मान्यता दे दी। तब से ये देश जंग के बीच भी शांति का द्वीप बना रहा।
तो तटस्थ होने का मतलब क्या है बिल्कुल साफ है
- किसी का पक्ष नहीं लेना
- नाटो जैसे गठबंधन से दूर रहना
- अपनी जमीन से किसी की सेना नहीं गुजरने देना
- हथियार सप्लाई ब्लॉक करना
- शांति वार्ताओं की मेजबानी करना
पर इसका मतलब ये नहीं कि स्विट्जरलैंड निहत्था है। बिल्कुल नहीं। यहां हर स्वस्थ पुरुष के लिए सैन्य ट्रेनिंग अनिवार्य है। 18-20 साल की उम्र में बेसिक ट्रेनिंग। उसके बाद रिजर्व फोर्स में नाम। घर में सर्विस राइफल और गोला-बारूद रखना कानूनी और जरूरी है। जरूरत पड़े तो कुछ घंटों में पूरा देश एक बड़ी सिविलियन आर्मी बन जाता है।
फिर भी खतरा बना रहता है। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी ने बेल्जियम, नीदरलैंड, नॉर्वे जैसे तटस्थ देशों को भी नहीं बख्शा था। तटस्थता का सम्मान तभी तक होता है जब तक बड़े देश चाहें। रणनीतिक फायदा दिखा तो कोई परवाह नहीं करता। और अब यही हो रहा है।
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