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Up Kiran, Digital News: भारत की विदेश नीति पर अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक तीखा बयान दिया है। उन्होंने सवाल खड़ा किया है कि अगर भारत ने 1961 में गोवा और 1974 में सिक्किम के मुद्दे पर अमेरिका जैसे ताकतवर देशों का दबाव नहीं माना था तो आज ऐसी क्या मजबूरी है कि अमेरिका को भारत-पाक मसले पर सीजफायर की घोषणा का मौका मिल गया?

गहलोत ने सोमवार को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के जरिए अपनी बात रखते हुए लिखा “भारत की विदेश नीति कभी किसी बाहरी दबाव में नहीं रही। अमेरिका द्वारा सीजफायर की घोषणा से देश की जनता हैरान है। जब भारत की सैन्य कार्रवाई जारी थी तो अमेरिका को हस्तक्षेप का अधिकार किसने दिया?”

इतिहास से उदाहरण—नेहरू और इंदिरा के दौर का हवाला

गहलोत ने अपने बयान में अतीत के दो अहम घटनाक्रमों का जिक्र किया—1961 में गोवा मुक्ति आंदोलन और 1974 में सिक्किम का भारत में विलय।

उन्होंने बताया कि 1961 में जब वे छठी कक्षा में पढ़ते थे तब गोवा पुर्तगाल के कब्जे में था। पंडित नेहरू ने ‘ऑपरेशन विजय’ चलाकर गोवा को आज़ाद कराया जबकि उस समय पुर्तगाल NATO का सदस्य था और अमेरिका सहित पश्चिमी देश भारत पर सैन्य कार्रवाई न करने का दबाव बना रहे थे। मगर भारत नहीं झुका।

इसी तरह 1974 में जब गहलोत विश्वविद्यालय में थे तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सिक्किम को भारत का हिस्सा बनाया जबकि सिक्किम की महारानी अमेरिकी मूल की थीं और एक बार फिर अमेरिका ने विरोध दर्ज किया। मगर इंदिरा गांधी ने उस दबाव को दरकिनार कर निर्णय लिया।

आज की स्थिति पर सवाल

गहलोत के बयान का सीधा संकेत मौजूदा हालात और हालिया सीजफायर समझौते की ओर है जिसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति के स्तर से हुई जबकि भारत-पाक मसलों पर परंपरागत रूप से भारत तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को खारिज करता रहा है।

गहलोत ने पूछा “सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि आज की परिस्थिति में ऐसा क्या दबाव था कि भारत ने किसी तीसरे देश को इस मसले में हस्तक्षेप की अनुमति दी?”

कूटनीतिक स्वतंत्रता पर बहस

गहलोत का यह बयान ऐसे वक्त आया है जब देश के भीतर एक तबका अमेरिकी भूमिका को संदेह की दृष्टि से देख रहा है। भारत की ‘नो थर्ड पार्टी’ नीति दशकों से चली आ रही है मगर अगर अमेरिका की सक्रियता से यह सिद्धांत कमजोर होता है तो यह भारतीय विदेश नीति के एक बड़े बदलाव का संकेत हो सकता है।

विश्लेषकों का मानना है कि गहलोत जैसे वरिष्ठ नेता द्वारा अतीत के उदाहरण देकर सरकार की विदेश नीति पर सवाल उठाना केवल राजनीतिक आलोचना नहीं है बल्कि यह राष्ट्रीय अस्मिता और कूटनीतिक संप्रभुता से जुड़ा एक अहम विमर्श है।

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