Up kiran,Digital Desk : उत्तराखंड के पहाड़ों में इन दिनों सिर्फ ठंड से ही नहीं, बल्कि खौफ से भी कंपकंपी छूट रही है। यहां इंसानों और जानवरों के बीच की जंग खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुकी है, जहाँ तेंदुए और भालू का आतंक थमने का नाम नहीं ले रहा है।
ताज़ा और दिल दहला देने वाली घटना पौड़ी गढ़वाल की है, जहाँ एक गुलदार (तेंदुए) ने एक शख्स को अपना निवाला बना लिया। इस मौत के बाद जो गुस्सा और डर का माहौल बना, उसने 48 स्कूलों और सभी आंगनबाड़ी केंद्रों पर ताला लगवा दिया।
वो बस मंदिर से लौट रहा था...
यह कहानी है 42 साल के राजेंद्र प्रसाद नौटियाल की। पौड़ी के पास गजल्ड गांव के रहने वाले राजेंद्र दूध का काम करके अपना घर चलाते थे। गुरुवार की सुबह, रोज़ की तरह, वे पास के मंदिर में दीया जलाने गए थे।
उन्हें क्या पता था कि मौत घात लगाकर उनका इंतज़ार कर रही है।
सुबह करीब 7:30 बजे, जब वे मंदिर से वापस लौट रहे थे, तो झाड़ियों में छिपे गुलदार ने उन पर हमला कर दिया। राजेंद्र को संभलने का मौका तक नहीं मिला और वे ज़िंदगी की जंग हार गए। जब कुछ देर बाद गांव के लोग उस रास्ते से गुज़रे, तो उनका शव देखकर सबके होश उड़ गए।
जब जनता के गुस्से ने DM और विधायक को घेरा
जैसे ही मौत की खबर गांव में फैली, मातम के साथ-साथ गुस्सा भी भड़क उठा। वन विभाग और प्रशासन की टीम के साथ जब पौड़ी के विधायक राजकुमार पोरी और DM स्वाति एस भदौरिया मौके पर पहुंचे, तो ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट गया।
सैकड़ों की संख्या में आक्रोशित ग्रामीणों उन्हें घेर लिया और दहाड़ते हुए पूछा - "आखिर कब तक हम ऐसे ही मरते रहेंगे?"
ग्रामीणों की बस दो मांगें थीं:
- इस गुलदार को तुरंत 'नरभक्षी' (Man-eater) घोषित किया जाए।
- गांव में इसे मारने के लिए फौरन एक 'शूटर' तैनात किया जाए।
"जब तक शूटर नहीं आएगा, लाश नहीं उठेगी!"
दोपहर करीब 12:30 बजे, प्रशासन ने ग्रामीणों को बताया कि गुलदार को मारने के आदेश जारी कर दिए गए हैं, और उसकी कॉपी भी दिखाई। लेकिन सालों से खोखले वादे सुन रहे ग्रामीणों को अब कागज़ पर नहीं, ज़मीन पर एक्शन चाहिए था।
वे अपनी मांग पर अड़ गए - "पहले शूटर बुलाओ, तभी लाश उठेगी!"
घंटों तक यह तनावपूर्ण माहौल बना रहा। आखिरकार, जब वन विभाग ने उनकी सभी मांगें मानने का भरोसा दिया, तब जाकर ग्रामीण शांत हुए और दोपहर 3 बजे राजेंद्र के शव को पोस्टमॉर्टम के लिए ले जाने दिया गया।
यह घटना सिर्फ एक मौत नहीं है। यह उन पहाड़ी गांवों का दर्द है, जहां लोग अब अपने ही घरों और खेतों में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे। 48 स्कूलों का बंद होना इस बात का सबूत है कि यह डर अब उनके बच्चों के भविष्य पर भी मंडराने लगा है।
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