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(पवन सिंह)
लेख की शुरुआत मैं कुछ यूं करना चाहूंगा...उसने आग लगाई यह सोचकर कर कि मकां पड़ोस का खाका हो जाएगा लेकिन उसे क्या पता था कि ये आग नफरत की थी,  वो खुद खाक हो जाएगा...सियासत ने हिंन्दू-मुसलमान का जो घटिया खेल शुरू किया था, उसके नतीजे आने लगे हैं..। बेरोजगारी ने आम आदमी को तबाह करके रख दिया है और यह रोज-ब-रोज भयावह हो रही है... लेकिन इसका सबसे बड़ा शिकार भारत का बहुसंख्यक हिन्दू युवा हुआ है। मुसलमानों का इस "सियासत संरक्षित और पोषित" नफरत से बहुत कुछ न बिगड़ा लेकिन हिन्दू युवा सड़क पर आ चुका है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है मुस्लिम आबादी में एक बड़ा तबका भले ही बहुत ज्यादा शिक्षित न हो लेकिन वह परंपरागत रूप से चले आ रहे अपने धंधे (कारीगरी कौशल) में निपुण रहा है और उसका लाभ यह हुआ कि बेरोजगारी का असर उस पर न के बराबर पड़ा। जबकि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के जीने और आगे बढ़ने का रास्ता उच्च-उच्चतम शिक्षा से लेकर सरकारी/अर्धसरकारी नौकरियों में जाना रहा है। गांवों के अधिकांश हिन्दू युवाओं की पसंद परंपरागत रूप से सेना रही है लेकिन अग्निवीर योजना ने और अन्य उपक्रमों व विभागों में उपयुक्त भर्तियां न होने के कारण वे भी निराश हैं।

बेहतरीन शिक्षा लेकर जो बहुसंख्यक युवा बड़े-बड़े गैर सरकारी संगठनों में काम किया करते थे, वे भी अब खाली हाथ बैठे हैं। केंद्र व राज्यों में सरकारी कार्यालयों में लाखों पद खाली हैं लेकिन सरकार भर्ती करने को तैयार नहीं है।‌ हालात यह है कि निजी प्रतिष्ठान भी हजारों की संख्या में छंटनी कर रहे हैं और छंटनी वाले कर्मचारियों में 95% बहुसंख्यक हिन्दू हैं। विगत 7 सालों में 15 राज्यों में हुई 70 प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए या वे किन्हीं कारणों से कैंसिल हो गईं। उधर जो नौकरियां हैं भी उनके जाने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। अभी तक टेक कंपनियों में ही छंटनी की ज्यादा मार देखी जा रही थी अब निजी बैंकिंग सेक्टर का भी बुरा हाल है।  Citi Group भी 2,000 से ज्यादा एम्पलॉईज को नौकरी से निकालने जा रहा है। आईटी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर लोगो को नौकरियों से निकाला है जिसमें अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट, ट्विटर, मेटा और गूगल सभी में हजारों लोगों भारत में छंटनी हुई है। इन सबकी सबसे ज्यादा मार बहुसंख्यक हिन्दू युवा झेल रहे हैं।

इससे उलट, मुसलमान युवाओं ने रोज-मर्रा के जीवन-यापन के कार्यों पर विगत दस सालों में ज्यादा फोकस किया है। वह क्षेत्र प्लंबरिंग का हो या कारपेंटरिंग का या फिर इलेक्ट्रॉनिक हो इलेक्ट्रीशियन का या आटो-मोबाइल सेक्टर से होते हुए सब्जियों के थोक व फुटकर मार्केट का...इस रोज़मर्रा के रोजगार सेक्टर पर उनका जबरदस्त कब्जा है....विगत दस सालों में उन्होंने हर काम के दाम बढ़ा दिए और सरकार की सभी योजनाओं का सबसे मस्त लाभ अगर कोई उठा रहा है तो वह मुस्लिम हैं.... इसलिए उनका बहुत कुछ न गया। ऊपर से अपने को हिन्दूवादी सरकार का लेबर लगाये सत्ता और उसके इशारे पर पुलिसिया चाल को मुस्लिम युवकों ने भांपा तो जो युवा इधर-उधर समय गुजारते थे वे भी पुश्तैनी धंधे में लग गये। 300 रूपए का मटन 800 रूपए कर दिया और मजे से बेच रहा है....। मुसलमान युवाओं ने पढ़ने-लिखने में अपने को झोंका और नतीजा यह रहा कि 2022 की सिविल सर्विस में 19, 2023 की सिविल सर्विस में 29 और 2024 की सिविल सर्विस में 53 युवाओं का सिलेक्शन यह बताता है कि विगत 10 साल मुस्लिम युवाओं के लिए स्वर्णिम काल रहे हैं।

इधर बेरोजगारी और फांकेंमारी से  गौरवान्वित बहुसंख्यक युवा एक-एक झंडा लेकर धार्मिक यात्राओं से लेकर मिनारों पर चढ़ने में लगा दिया गया...।  फर्जी राष्ट्रवाद और तथाकथित धर्म-कर्म में लगे बहुसंख्यक "मिनार विजयी" युवाओं से अगर यह कहा जाए कि "दो धार्मिक पर्वत श्रृंखलाओं" पर चीन का कब्जा है और इधर विगत दस सालों में चीन बिना लड़े ही लगभग 4 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर चुका है, उसे छुड़वा लो...तो वह गैस छोड़ देगा। इस नफरत भरी सियासत के नतीजे शीशे की तरफ साफ़ है। हक़ीक़त जिसे भी चेक करनी हो वो होली-दीवाली और ईद-बकरीद के बीच बाजारों की सेहत और त्यौहारों की रौनक के बीच कर सकता है। कभी होली-दीवाली पर बाजार दो हफ्ते पहले सज जाया करते थे। होली-दीपावली त्यौहारों के एक दिन पहले तो गजब की रौनक व खरीदारी हुआ करती थी... लेकिन यह अब गायब हो चुकी है। बाजार सन्नाटे में रहते हैं। सुबह अखबार 85 करोड़ फटिहल आम जनता की मुर्दानी खरीददारी को परे रखकर खाये-पिये-अघाये बहुसंख्यक की खरीदारी की फोटो और क्लिप्स चलाकर हथेली में सरसों उगा देता है। बहुसंख्यक समुदाय भी अपनी इज्जत बचाने के लिए आन लाइन मार्केटिंग कंपनियों के सिर इस उदासी को फोड़ देता है.. लेकिन सवाल तो यह उठता है कि यह आन लाइन मार्केटिंग कंपनियों का असर ईद-बकरीद पर क्यों नजर नहीं आता। आप जिस भी राज्य में रह रहे हों जरा अपने शहरों के पुराने इलाकों की ओर मुस्लिम त्योहारों पर निकल जाएं..रात भर आपको चहल-कदमी नजर आएगी।

दरअसल सच स्वीकार करें न करें शहरों का बहुसंख्यक वर्ग व युवा जो नौकरियों पर आश्रित था, वह अब खलिहर हो चुका है।‌ हर राज्य में नौकरियां ठेके पर जा चुकी हैं और वेतन 12-16 हजार है..ऐसे में वह खर्च क्या करेगा? बहुसंख्यकों की पर्चेजिंग पावर मारी जा चुकी है जो कभी बाजारों की और अर्थव्यवस्था की रौनक हुआ करती थी। 
मजेदार बात यह है सरकार को भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा है वो गुरू गोलवलकर की "बंच आफ थाट" पर चल रही है मतलब जनता को इतना कमजोर कर दो कि वह आवाज न उठा सके।
ऊपर से बाबाओं और आश्रमों की क्लासेज़ ने तो और भी नर्क कर रखा है। स्वतंत्र थिंक टैंक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर जून 2024 में 9.2 प्रतिशत हो गयी, जो मई 2024 में 7 प्रतिशत से काफी अधिक है। यह भयावह हालत वर्तमान है और इसकी परिणति आत्महत्याओं का बढ़ता ग्राफ है। दो शेर याद आ रहे हैं, एक बशीर बद्र साहेब का है--
"सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें। 
आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।।"
और दूसरा शेर है सलीम कौसर साहेब का-
"ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव।
जो बच के निकल आएगा तैराक वही है।"
और सत्ता के लिए सैफ़ ज़ुल्फ़ी साहेब का एक शेर है-
"काग़ज़ पे उगल रहा है नफ़रत
कम-ज़र्फ़ अदीब हो गया है।"

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