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Up Kiran, Digital Desk: भारत में दीपावली का नाम आते ही रौशनी, मिठाई, खुशियाँ और मिलन का एक खुबसूरत चित्र आंखों के सामने उभर आता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि दिवाली का ये उत्सव मुगलों के जमाने में कैसे मनाया जाता था? इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि यह पर्व सिर्फ आम जनता के बीच ही नहीं, बल्कि बादशाहों के दरबारों में भी खास मायने रखता था।

जब अकबर के महल में जगमगाने लगे दीप

अकबर, जो अक्सर विभिन्न धर्मों के साथ समरसता के लिए जाना जाता है, उसके राज में दिवाली को लेकर एक खास उत्साह देखने को मिलता था। इतिहासकारों के अनुसार, अकबर के दरबार में इस अवसर पर दीये जलाए जाते, मिठाइयों का आदान-प्रदान होता और नए कपड़े पहनने की परंपरा भी प्रचलित थी। उसी दौर में इस त्योहार को ‘जश्न-ए-चिरागां’ नाम से जाना गया, यानी रौशनी का उत्सव।

जहांगीर और शाहजहां ने भी इस परंपरा को जारी रखा और अपने शासन काल में इस त्योहार को भव्यता दी।

जब औरंगज़ेब ने रौशनी पर डाली साया

औरंगज़ेब के दौर में धार्मिक कठोरता बढ़ने लगी थी, जिससे कई त्योहारों की चमक फीकी पड़ गई। उसने उत्सवों पर नियंत्रण रखने की कोशिश की, और यही कारण था कि दिवाली जैसी खुशी का पर्व दरबारों में वैसी धूमधाम से नहीं मनाया गया। हालांकि, आम जनता ने इसे रोकने नहीं दिया। घरों में दीयों की रौशनी फैली रहती, मिठाइयों की मिठास लोगों को जोड़ती रही।

आतिशबाज़ी की शुरुआत

मुगल काल में आतिशबाज़ी एक नया रंग लेकर आई। खास मौकों पर जैसे कि दिवाली या शाही विवाह में पटाखों का खूब उपयोग होता। यह चलन इतना लोकप्रिय हुआ कि धीरे-धीरे आम लोगों तक भी पहुँच गया। हालाँकि, भारत में पटाखों का इतिहास इससे भी पुराना माना जाता है, मगर मुगल काल में इनका उपयोग निश्चित रूप से अधिक हुआ।