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Up Kiran, Digital Desk: खुश रहो, पॉजिटिव सोचो, चिंता मत करो. ये सलाहें हमें बचपन से मिलती हैं. जब भी हम उदास, गुस्से में या परेशान होते हैं, तो हमें सिखाया जाता है कि इन 'बुरी' भावनाओं को खुद से दूर कर दो. हम सब यही कोशिश करते हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जितना हम इन भावनाओं से लड़ते हैं, ये उतनी ही मजबूती से हम पर हावी क्यों हो जाती हैं?

मनोचिकित्सकों का मानना है कि असली शांति इन भावनाओं को दबाने या खत्म करने में नहीं, बल्कि उन्हें महसूस करने और फिर उन्हें अपने रास्ते जाने देने में है. इसी प्रक्रिया को 'इमोशनल फ्लो' यानी भावनाओं का बहाव कहते हैं.

भावनाओं को दबाना क्यों है खतरनाक?

इसे एक आसान उदाहरण से समझिए. मान लीजिए कि आप एक रबर की बॉल को पानी के अंदर दबाने की कोशिश कर रहे हैं. आप जितनी ताकत लगाकर उसे नीचे रखेंगे, वह उतनी ही तेजी से ऊपर की ओर उछलेगी. हमारी भावनाएं भी बिल्कुल ऐसी ही हैं.

जब हम अपने दुख, गुस्से या डर को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं, तो वे खत्म नहीं होतीं. बल्कि, वे हमारे मन के किसी कोने में इकट्ठा होती रहती हैं. फिर एक दिन वे तनाव, चिड़चिड़ाहट या किसी बड़ी भावनात्मक ज्वालामुखी के रूप में फट पड़ती हैं. कई बार यही दबी हुई भावनाएं शारीरिक बीमारियों का कारण भी बन जाती हैं.

तो फिर 'इमोशनल फ्लो' क्या है?

'इमोशनल फ्लो' का मतलब यह नहीं है कि आप दुख में डूब जाएं या गुस्से में तोड़-फोड़ करने लगें. इसका सीधा सा मतलब है- जो महसूस हो रहा है, उसे महसूस होने दें, बिना किसी जजमेंट के.

आप आसमान हैं, और भावनाएं उस आसमान में आने-जाने वाले बादल हैं. बादल आते हैं, कुछ देर ठहरते हैं और फिर चले जाते हैं. वे आसमान को बदल नहीं सकते. ठीक वैसे ही, भावनाएं आती हैं और चली जाती हैं. आपको बस उन्हें देखना है, उनसे लड़ना नहीं है.

मनोचिकित्सक इसे तीन आसान स्टेप्स में समझाते हैं:

पहचानो (Recognize): सबसे पहले यह स्वीकार करें कि आप क्या महसूस कर रहे हैं. जैसे- "ठीक है, मैं इस वक्त गुस्सा महसूस कर रहा हूं." या "मुझे दुख हो रहा है."

महसूस करो (Feel): उस भावना को अपने शरीर में महसूस करने की कोशिश करें. आपको शायद सीने में भारीपन लगे, या पेट में बेचैनी हो. बस उसे महसूस करें. खुद को यह कहने की जरूरत नहीं है कि 'मुझे ऐसा महसूस नहीं करना चाहिए'.

जाने दो (Let go): यह भरोसा रखें कि कोई भी भावना हमेशा के लिए नहीं रहती. जैसे वह आई है, वैसे ही चली भी जाएगी. आपको उसे धक्के मारकर बाहर निकालने की जरूरत नहीं है.

भावनाएं 'बुरी' नहीं, सिर्फ 'जानकारी' होती हैं

हम सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि हम अपनी भावनाओं को 'अच्छा' और 'बुरा' में बांट देते हैं. खुशी अच्छी है, तो गुस्सा बुरा. सच तो यह है कि हर भावना हमें कुछ बताने की कोशिश करती है. गुस्सा बताता है कि शायद हमारी कोई सीमा लांघी गई है. डर हमें किसी खतरे से बचाने की कोशिश करता है. दुख बताता है कि हमने कुछ कीमती खो दिया है.

जब हम इन भावनाओं को सुनना शुरू कर देते हैं, तो हम खुद को बेहतर तरीके से समझने लगते हैं.

निष्कर्ष यह है कि असली मानसिक शांति हर वक्त खुश रहने का नाम नहीं है. असली शांति तब मिलती है, जब आप उदास होते हुए भी खुद के साथ सहज रह पाते हैं. जब आप अपनी हर भावना को स्वीकार करना सीख जाते हैं, तब आप खुद से लड़ना बंद कर देते हैं, और वहीं से सच्ची शांति की शुरुआत होती है.