Up Kiran, Digital Desk: बिहार विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट तेज हो गई है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 अक्टूबर को समस्तीपुर में अपनी पहली चुनावी रैली से इस माहौल में और गर्मी डाली। अपने 45 मिनट के भाषण में उन्होंने एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की शानदार जीत और रिकॉर्ड तोड़ जनादेश का दावा किया। लेकिन जो बात सबसे ज्यादा चर्चा में रही, वह थी मोदी का नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने के स्पष्ट नारे से बचना।
क्या भाजपा के मन में नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने पर संशय है?
2020 के विधानसभा चुनाव में मोदी और अमित शाह जैसे बड़े भाजपा नेता हर मंच से नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने का खुलकर समर्थन करते थे। पीएम मोदी ने 23 अक्टूबर 2020 को सासाराम में अपनी रैली में कहा था, "अबकी बार, नीतीश के नेतृत्व वाली सरकार"। लेकिन इस बार, प्रधानमंत्री मोदी ने 24 अक्टूबर को कहा, "इस बार बिहार में भी नीतीश बाबू के नेतृत्व में एनडीए जीत के अपने पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ने वाला है," मगर उन्होंने सीधे तौर पर 'फिर से नीतीश सरकार' का नारा नहीं दिया।
यह चुप्पी बिहार के राजनीतिक गलियारों में सवालों का तूफान पैदा कर रही है। क्या यह भाजपा की किसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, या फिर वह मुख्यमंत्री पद को लेकर असमंजस में है? यह सवाल राजनीतिक विश्लेषकों के बीच चर्चा का केंद्र बन गया है।
अमित शाह के बयानों से बढ़ती अनिश्चितता
प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी के अलावा, गृह मंत्री अमित शाह के हालिया बयान भी इस संशय को बढ़ाते हैं। 16 अक्टूबर को एक साक्षात्कार में जब शाह से पूछा गया कि अगर एनडीए जीतता है तो मुख्यमंत्री कौन होगा, तो उन्होंने जवाब दिया, "ये तय करने वाला मैं कौन होता हूं कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन चुनाव बाद विधायक दल का नेता सभी सहयोगी मिलकर तय करेंगे।"
यह बयान बिल्कुल वैसा ही था जैसा उन्होंने पिछले साल दिसंबर और जून 2025 में दिए थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि मुख्यमंत्री पद का निर्णय 'वक्त' तय करेगा। भाजपा के इन शीर्ष नेताओं के अस्पष्ट बयानों ने पार्टी की रणनीति को लेकर और भी ज्यादा उलझन पैदा कर दी है।
भाजपा का चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड: क्या यही वजह है संशय की?
भा.ज.पा. के हालिया चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड ने इस संशय को और भी मजबूत किया है। महाराष्ट्र (2024), मध्यप्रदेश (2023), और असम (2021) के चुनावों में पार्टी ने नेताओं के बीच नेतृत्व का बंटवारा देखा था। भाजपा ने एकनाथ शिंदे, शिवराज सिंह चौहान, और सर्बानंद सोनोवाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था, लेकिन मुख्यमंत्री का पद किसी और के नाम पर फाइनल हुआ। ऐसे में भाजपा के समर्थकों को यह चिंता सता रही है कि कहीं नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में न देखकर पार्टी कुछ और नाम पेश न कर दे।
बिहार में भाजपा की 'अपना मुख्यमंत्री' बनाने की रणनीति
वरिष्ठ पत्रकार इंद्रभूषण के अनुसार, भाजपा की यह चुप्पी रणनीतिक रूप से मायने रखती है। बिहार हिंदी पट्टी का एकमात्र बड़ा राज्य है, जहां भाजपा ने कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। भाजपा के लिए यह राज्य राजनीतिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है और वह अपनी रणनीति को बिना किसी खतरे के परिपूर्ण करना चाहती है।
1. राजनीतिक चुप्पी:
भा.ज.पा. ने मुख्यमंत्री पद के चेहरे को सार्वजनिक रूप से घोषित करने से बचा है ताकि चुनाव के बाद उसके पास विकल्प खुले रहें। ऐसा करने से वह यह सुनिश्चित कर सकती है कि अगर चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद पर कोई विवाद उठता है तो पार्टी को किसी बड़े विरोध का सामना न करना पड़े।
2. नीतीश कुमार की मजबूरी:
नीतीश कुमार, जो बिहार में कुर्मी, कोयरी और महादलित समुदाय का लगभग 15% वोट बैंक रखते हैं, भाजपा के लिए एक राजनीतिक मजबूरी हैं। बिहार की सत्ता की राजनीति में, नीतीश के बिना कोई भी गठबंधन मजबूत नहीं हो सकता। भाजपा जानती है कि नीतीश के साथ गठबंधन के बिना सत्ता पर काबू पाना मुश्किल है, और इसलिए वह उन्हें नाराज भी नहीं करना चाहती।
3. गठबंधन की अहमियत:
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ा था और उसकी हार हुई थी, क्योंकि नीतीश कुमार और लालू यादव का गठबंधन बेहद मजबूत था। भाजपा के लिए अब यह समझना जरूरी हो गया है कि नीतीश कुमार के बिना सत्ता में आना असंभव है। इसीलिए, भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे को चुनाव तक स्थगित करने की रणनीति अपनाई है।
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