
Up Kiran, Digital Desk: नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक बार फिर पर्दे पर हैं—इस बार ओटीटी के जरिए और एक रियल लाइफ हीरो की कहानी को जीवंत करने के मिशन पर। ये कहानी है गोवा के कस्टम अधिकारी कोस्टाओ फर्नांडीस की, जिन्होंने 90 के दशक में सोने की तस्करी के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई लड़ी थी। यह फिल्म उनके संघर्ष, बलिदान और परिवार के टूटते ताने-बाने को उजागर करती है।
परफॉर्मेंस, इमोशन और सिनेमैटोग्राफी में फिल्म दमदार है, लेकिन कहानी कहने के अंदाज़ में कई अहम बिंदु छूट गए हैं, जो एक ‘लैंडमार्क जजमेंट’ को जनता तक पूरी तरह नहीं पहुंचा पाते।
कहानी: एक बहादुर अफसर, एक बिखरता परिवार और एक अधूरी लड़ाई
कहानी शुरू होती है एक छोटी बच्ची की आवाज़ से—जो अपने पिता को एक हीरो की तरह देखती है। वही बच्ची कोस्टाओ की बेटी है और कहानी की सूत्रधार भी। यहीं से फिल्म एक भावनात्मक दिशा पकड़ती है, जो कोस्टाओ के संघर्ष से ज्यादा उनके परिवार की जर्नी पर केंद्रित हो जाती है।
कोस्टाओ फर्नांडीस, एक ईमानदार कस्टम अधिकारी, जिनकी नजर एक राजनीतिक ताकत से जुड़े माफिया पर है। एक ऑपरेशन के दौरान आत्मरक्षा में माफिया की मौत हो जाती है, और यहीं से कोस्टाओ की जिंदगी का सबसे कठिन दौर शुरू होता है—हत्या का आरोप, ट्रायल, पारिवारिक विघटन और सामाजिक अपमान।
फिल्म दिखाती है कि कैसे एक बच्ची अपने पिता को अदालत के बाहर महिलाओं के समूह से पिटते हुए देखती है, और उसके अंदर पैदा होता टूटन, डर और असमंजस। यह ट्रैक इमोशन में असर डालता है, लेकिन मुख्य मुद्दा—कोस्टाओ की प्रोफेशनल जर्नी, कानूनी लड़ाई और उस ऐतिहासिक फैसले की गहराई पीछे छूट जाती है।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी: पूरी फिल्म की आत्मा, अभिनय में कोई कमी नहीं
नवाजुद्दीन सिद्दीकी हर बार यह साबित करते हैं कि क्यों उन्हें अपनी पीढ़ी के सबसे प्रभावशाली एक्टर्स में गिना जाता है। कोस्टाओ फर्नांडीस जैसे गंभीर किरदार में उन्होंने संयम, गुस्सा, दर्द, निराशा और संघर्ष—हर भावना को पर्दे पर ज़िंदा कर दिया है।
उनका हर सीन दर्शकों को बांधे रखता है। चाहे कोर्ट रूम हो, पत्नी से बहस हो या बच्ची के साथ भावुक पल—नवाज का अभिनय कभी कमजोर नहीं पड़ता। वो इस किरदार में ऐसे घुल-मिल जाते हैं जैसे कि वो खुद कोस्टाओ हों।
उनकी डायलॉग डिलिवरी, बॉडी लैंग्वेज और आंखों की भाषा बेजोड़ है। यही वजह है कि दर्शक अंत तक जुड़े रहते हैं, भले ही कहानी अपनी दिशा भटक जाए।
सह-कलाकारों की परफॉर्मेंस: प्रिया बापट से लेकर चाइल्ड आर्टिस्ट तक हर किसी ने छोड़ी छाप
प्रिया बापट (कोस्टाओ की पत्नी): सीमित स्क्रीन टाइम में भी उन्होंने गहरी छाप छोड़ी है। उनकी आंखों में पति के लिए चिंता, बच्चों के लिए डर और एक मजबूत स्त्री की मजबूरी साफ दिखती है।
हुसैन दलाल (पीटर): छोटा रोल, लेकिन प्रभावशाली।
गगन देव रियार (सीबीआई अफसर): खड़ूस, भ्रष्ट अफसर के रोल में पूरी तरह फिट।
किशोर कुमार जी (डिमेलो, मुख्य विलेन): क्रूरता उनके अभिनय से झलकती है।
चाइल्ड आर्टिस्ट (कोस्टाओ की बेटी): इस फिल्म की भावनात्मक नींव हैं। उनकी मासूमियत, सवाल और चुप्पी कहानी को गहराई देती है।
निर्देशन और स्क्रिप्ट: सेजल शाह की अच्छी शुरुआत, लेकिन कमजोर अंत
सेजल शाह, जिन्होंने इस फिल्म का निर्देशन और लेखन किया है, उनका प्रयास सराहनीय है। उन्होंने एक जटिल और इमोशनल विषय को चुनकर साहस दिखाया, लेकिन उसे संभाल नहीं सकीं।
फिल्म की शुरुआत बेहद प्रभावी है—लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उसका फोकस भावनाओं पर अधिक और केस के कानूनी पहलुओं पर कम हो जाता है। नतीजा ये कि कहानी का क्लाइमैक्स कमजोर लगता है।
फिल्म से ये बातें गायब थीं:
कोर्ट रूम ड्रामा की डिटेलिंग
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पृष्ठभूमि
प्रोफेशनल संघर्ष की सटीक व्याख्या
कस्टम विभाग की भूमिका और केस की जांच की प्रगति
इससे कहानी एक मुकाम पर पहुंचने से पहले ही ठहर जाती है।
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