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Up Kiran, Digital Desk: 2022 के जातिगत सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में मुसलमान करीब 17% आबादी बनाते हैं, लेकिन राजनीतिक मंच पर उनकी संख्या इस अनुपात से बहुत पीछे है। कैबिनेट में मुस्लिम मंत्रियों की कमी और विधानसभा में प्रतिनिधित्व का असंतुलन दर्शाता है कि बिहार की सत्ता में मुस्लिम समुदाय अभी भी उचित हिस्सेदारी नहीं पा सका है।

विधानसभा चुनावों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की असलियत

सन् 52 में पहली बार हुए बिहार विधानसभा चुनाव में 24 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। राज्य की विधानसभा में मुसलमानों की सबसे बड़ी मौजूदगी 1985 में देखी गई जब 34 मुस्लिम विधायक बने। उस वक्त कांग्रेस का दबदबा था और मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह के कार्यकाल में सात मुसलमान मंत्री भी शामिल थे। लालू यादव के दौर में यह रिकॉर्ड टूटते हुए आठ मुस्लिम मंत्री बने जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा रहा।

1990 के चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 20 रह गई थी, जिसमें जेडीयू के 11 और कांग्रेस के केवल पांच मुस्लिम विधायक थे। इस दौरान अल्पसंख्यक मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 6.19% था जो उनकी जनसंख्या से बहुत कम था।

सीटों की संख्या और मुसलमानों की घटती मौजूदगी

बिहार विधानसभा की कुल सीटें 1952 में 330 थीं, जो बाद में पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों के विलय और झारखंड के गठन के कारण घटकर आज 243 रह गई हैं। 1985 और 2000 में मुस्लिम विधायक सबसे ज्यादा (29) रहे, लेकिन अधिकांश समय उनकी संख्या 17 से 19 के बीच रही। आबादी के अनुसार यह संख्या कम से कम 40 होनी चाहिए थी, लेकिन मुस्लिम समुदाय को यह प्रतिनिधित्व कभी मिला ही नहीं।

नीतीश सरकार में मुस्लिम मंत्रियों की भूमिका

नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में मुस्लिम नेताओं की संख्या हमेशा उतार-चढ़ाव भरी रही है। 2005 में जब नीतीश पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो चार मुस्लिम मंत्रियों को जगह मिली। बाद के वर्षों में शाहिद अली खान, परवीन अमानुल्लाह और खुर्शीद अहमद जैसे नामों ने मंत्री पद संभाला। 2020 में तो उनके मंत्रिमंडल में मुस्लिम प्रतिनिधि बिल्कुल भी नहीं था, लेकिन कुछ महीनों बाद विस्तार में सैयद शाहनवाज हुसैन को शामिल किया गया। 2022 में आरजेडी के साथ गठबंधन के बाद कई मुस्लिम नेताओं को मंत्री पद दिए गए।

2024 में जब नीतीश ने बीजेपी के साथ सरकार बनाई, तब जमा खान अकेले मुस्लिम मंत्री बने, जो 2006 से 2014 तक राज्यसभा भेजे गए पांच मुस्लिम नेताओं में से एक थे।

मुस्लिम नेताओं का बिहार की राजनीतिक और सामाजिक विकास में योगदान

बिहार में मुस्लिम नेताओं ने सामाजिक न्याय और शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़ी भूमिका निभाई है। कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में 1971 में अल्पसंख्यक आयोग का गठन हुआ ताकि धार्मिक या जातीय भेदभाव को रोका जा सके। आज़ादी से पहले भी मुसलमानों को सीटें आरक्षित थीं, जैसे 1937 के प्रांतीय चुनावों में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए तय थीं।

सैयद मुहम्मद फखरुद्दीन खान बिहार के पहले मुस्लिम शिक्षा मंत्री थे जिन्होंने पटना विश्वविद्यालय के निर्माण में योगदान दिया। मोहम्मद यूनुस ने बिहार की पहली प्रांतीय सरकार का नेतृत्व किया और उर्दू भाषा को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दिलाई।

बिहार के मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक चेहरे

पटना एयरपोर्ट रोड का नाम पीर अली मार्ग है, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख मुसलमान सेनानी थे। अब्दुल गफूर बिहार के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने 1973 से 1975 तक राज्य का नेतृत्व किया। वे स्वतंत्रता संग्राम में जेल भी गए थे और बाद में सांसद और मंत्री भी बने।

1962 में जाहरा अहमद बनीं बिहार की पहली मुस्लिम महिला विधायक। 1970 और 80 के दशक में गुलाम सरवर और जाबिर हुसैन जैसे नेताओं ने राजनीति और साहित्य के जरिए मुसलमानों के हक के लिए संघर्ष किया।

आज के मुस्लिम नेता: तेजस्वी के करीबी और समाज के लिए संघर्षशील

अब्दुल बारी सिद्दीकी, जो दरभंगा से आरजेडी के नेता हैं, नीतीश और लालू के दौर में मंत्री रहे और तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनवाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। वहीं परवीन अमानुल्लाह नीतीश की कैबिनेट की पहली महिला मुस्लिम मंत्री थीं जिनका 2023 में निधन हो गया।

पश्चिम चंपारण के खुर्शीद आलम भी मुस्लिम समुदाय के बड़े नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने 2025 के चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है।