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Up Kiran, Digital Desk: बिहार की सियासत इन दिनों नई करवट ले रही है। विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और राजनीतिक दल मैदान में उतरने को तैयार हैं। पर इस बार मुकाबला सिर्फ सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नहीं है। तीसरा मोर्चा भी उभरकर सामने आया है और यह मोर्चा है जनसुराज अभियान का, जिसकी कमान संभाल रखी है चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर ने।
वोटर की सोच में बदलाव, सिर्फ वादों से नहीं चलेगा काम
इस बार जनता के सामने विकल्प ज़्यादा हैं, लेकिन निर्णय कठिन। एक तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सरकार के काम गिना रहे हैं, तो दूसरी ओर विपक्ष नई उम्मीदों की चादर लेकर जनसभा में उतरा है। बीच में जनसुराज ऐसा आंदोलन बनकर खड़ा हो गया है जो परंपरागत राजनीति को सीधी चुनौती दे रहा है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अब जनता सिर्फ वादों से नहीं, धरातल पर काम देख रही है। मुख्यमंत्री नीतीश ने आचार संहिता लागू होने से पहले कई लोकलुभावन घोषणाएं कर दी हैं सामाजिक सुरक्षा पेंशन में बढ़ोतरी, महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35% आरक्षण, मुफ्त बिजली और स्वास्थ्यकर्मियों के मानदेय में इज़ाफा जैसे फैसले इसका हिस्सा हैं। ये कदम सीधे तौर पर वोट बैंक को साधने की कोशिश के रूप में देखे जा रहे हैं।
विपक्ष की रणनीति: रोजगार और विकास के मुद्दों पर घेरेबंदी
महागठबंधन की ओर से भी आंदोलन का बिगुल बज चुका है। 'वोट अधिकार यात्रा' के जरिए विपक्ष अब गांव-गांव जाकर मतदाताओं से जुड़ने की तैयारी में है। बेरोजगारी, विकास की गति और सरकारी पारदर्शिता जैसे मुद्दों को उठाकर विपक्ष सत्ता पक्ष को घेरे में लेना चाहता है।
तेजस्वी यादव, जो खुद मुख्यमंत्री पद के बड़े दावेदार माने जा रहे हैं, लोगों से वादा कर रहे हैं कि नई सरकार बनी तो युवाओं को बेहतर रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेगी। लेकिन सवाल ये है कि क्या जनता अब भी केवल वादों पर भरोसा करेगी?
प्रशांत किशोर का मॉडल: बदलाव की बात या बदलाव की लहर?
प्रशांत किशोर, जो वर्षों तक पर्दे के पीछे चुनावी रणनीति बनाते रहे, अब खुद मैदान में हैं। उन्होंने जनसुराज को एक राजनीतिक दल में बदला और ‘बिहार बदलाव यात्रा’ की शुरुआत की। उनका दावा है कि बिहार की राजनीति को जड़ से बदलने का वक्त आ गया है। वे हर जिले में जाकर जनता से संवाद कर रहे हैं, पंचायत स्तर तक मुद्दों को सुन और उठाने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रशांत किशोर के लिए चुनौती यह है कि क्या वे जनता को पारंपरिक पार्टियों से हटाकर अपने समर्थन में कर पाएंगे? फिलहाल तो वे एक विचारधारा की तरह सामने आ रहे हैं एक ऐसा विकल्प, जो सत्ता और विपक्ष दोनों से अलग है।
जनता की जिम्मेदारी: नेता नहीं, प्रतिनिधि चुनिए
राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो इस बार चुनाव में सबसे अहम भूमिका वोटरों की होगी। जनता को तय करना है कि वह पार्टी के झंडे देखकर वोट देगी या उस प्रत्याशी को चुनेंगी जो सच में उनके क्षेत्र की समस्याओं को समझता और सुलझा सकता है। इस समय नेताओं के बजाय ज़िम्मेदार जनप्रतिनिधि चुनना वक्त की मांग है।
लोकतंत्र में बदलाव की शुरुआत एक वोट से होती है। और यही वोट तय करेगा कि अगले पांच साल तक राज्य की बागडोर किसके हाथों में रहेगी। इसलिए भावनाओं और जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर, नीतियों और नियत को परखना ज़रूरी है।
बदलाव की ज़रूरत क्यों महसूस हो रही है?
राज्य में बदलाव की मांग तेज़ होती जा रही है। लंबे समय से एक ही चेहरे के शासन ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या अब नई सोच और नई नीति की जरूरत है? नीतीश कुमार ने चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है और इस दौरान उन्होंने कई बार गठबंधन बदले हैं। ऐसे में कुछ लोग इसे सत्ता की मजबूरी मानते हैं, तो कुछ इसे अवसरवाद।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जब कोई सत्ता में बहुत लंबे समय तक बना रहता है, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होने लगती है। विकल्पों का होना लोकतंत्र की ताकत है और इस बार बिहार में विकल्प मौजूद हैं।
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