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Up Kiran, Digital Desk: आजादी के करीब 96 साल बाद, भारत में एक बार फिर से राष्ट्रीय जनगणना के साथ-साथ जाति की गिनती भी की जाएगी। केंद्र सरकार ने यह बड़ा फैसला लिया है, जिसका ऐलान केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बुधवार को किया। उन्होंने साफ किया कि आगामी जनगणना में जातिगत गणना को पूरी "पारदर्शिता" के साथ शामिल किया जाएगा।

यह फैसला ऐसे समय में आया है जब बिहार और कुछ अन्य राज्यों ने अपने स्तर पर जाति आधारित सर्वेक्षण कराए हैं, जिन पर केंद्र सरकार और विपक्षी दलों के बीच राजनीतिक खींचतान भी देखने को मिली। मंत्री वैष्णव ने कहा कि जनगणना वैसे तो केंद्र का विषय है, लेकिन कुछ राज्यों ने राजनीतिक कारणों से ये सर्वेक्षण कराए। अब मोदी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि पूरे देश की जनगणना में जाति का आंकड़ा पारदर्शी तरीके से जुटाया जाए।

याद दिला दें कि भारत में हर 10 साल पर होने वाली जनगणना अप्रैल 2020 में होनी थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण इसमें देरी हो गई है। अब जब भी यह जनगणना होगी, यह ऐतिहासिक होगी, क्योंकि 1931 के बाद पहली बार इसमें जाति का कॉलम शामिल होगा।

जाति जनगणना आखिर है क्या? और पहले क्यों होती थी?

सीधे शब्दों में कहें तो जाति जनगणना का मतलब है कि जब जनगणना कर्मचारी आपके घर आएंगे, तो वे आपके नाम, उम्र, लिंग, शिक्षा, आर्थिक स्थिति जैसी जानकारियों के साथ-साथ आपकी जाति भी पूछेंगे और दर्ज करेंगे।

भारत में जाति एक सामाजिक सच्चाई है, जो अक्सर लोगों की शिक्षा, नौकरी पाने की क्षमता और समाज में उनकी पहुंच को प्रभावित करती है। 1931 से पहले, अंग्रेजों के समय में जाति जनगणना होती थी (पहली बार व्यवस्थित रूप से शायद 1901 में)। 1931 की जनगणना के आंकड़ों से ही पता चला था कि उस समय देश की करीब 52% आबादी अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) की जातियों की थी। इसी डेटा के आधार पर बाद में मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में OBC के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की, जो 1990 में लागू हुई।

तो फिर आजादी के बाद यह बंद क्यों हो गई?

देश की आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने जातिगत जनगणना को बंद करने का फैसला किया। उनका मानना था कि जाति पूछने से समाज में बंटवारा बढ़ सकता है और राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है। सरकार का लक्ष्य जाति-आधारित पहचान को कम करके एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान बनाना था। इसी सोच के चलते करीब एक सदी तक राष्ट्रीय जनगणना में जाति का कॉलम गायब रहा।

अब फिर से क्यों ज़रूरत महसूस हुई?

पिछले कुछ दशकों में समाज में बढ़ती असमानता और विभिन्न समुदायों की राजनीतिक-सामाजिक आकांक्षाओं के चलते जाति जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। कई नेता और राजनीतिक दल इसे सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी बताने लगे। इसके पीछे मुख्य कारण ये हैं:

सामाजिक न्याय: सटीक जातिगत आंकड़े होने से सरकारें आरक्षण जैसी नीतियों को ज़्यादा प्रभावी ढंग से लागू कर सकती हैं। यह पता चल सकेगा कि कौन से समुदाय विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं और उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए खास योजनाएं बनाई जा सकेंगी।

बेहतर नीतियां बनाना: जैसा कि पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा कहती हैं, जाति जनगणना से शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में मौजूद असमानताएं उजागर होंगी। इससे सभी के लिए बेहतर और कारगर नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व: आंकड़ों से पता चल सकेगा कि विभिन्न समुदायों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कितना है। पार्टियां इसी आधार पर अपनी रणनीति बना सकती हैं और यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि हर तबके की आवाज़ सुनी जाए।

राज्यों की पहल: बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपने स्तर पर सर्वेक्षण करके दिखा दिया है कि ऐसे आंकड़ों की व्यवहारिक ज़रूरत है, जिससे देशव्यापी मांग को और बल मिला।

सामाजिक-आर्थिक हकीकत: भारत में आज भी जाति अक्सर अवसरों और संसाधनों तक पहुंच तय करती है। सटीक आंकड़ों के बिना, इन असमानताओं को दूर करने के लिए प्रभावी नीतियां बनाना मुश्किल होता है।

क्या यह राह आसान होगी? चुनौतियाँ क्या हैं?

जाति जनगणना का फैसला जितना अहम है, इसे लागू करना उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है।

जटिलता: भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं। उनका सही ढंग से वर्गीकरण करना और डेटा इकट्ठा करना एक बहुत बड़ा और जटिल काम है।

सामाजिक तनाव का खतरा: कुछ लोगों को डर है कि जाति पूछने और उस आधार पर नीतियां बनाने से समाज में भेदभाव और तनाव बढ़ सकता है।

डेटा की व्याख्या: एक ही जाति के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अलग-अलग राज्यों में भिन्न हो सकती है। ऐसे में सबके लिए एक समान नीति बनाना मुश्किल होगा।

हालांकि, सरकार का कहना है कि वह इसे पूरी पारदर्शिता और सावधानी से करेगी। अगर सही योजना और दृष्टिकोण के साथ इसे लागू किया जाता है, तो जाति जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है, जिससे सही मायने में "सबका साथ, सबका विकास" सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है।

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