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Up Kiran, Digital Desk: आज से 27 साल पहले हुई एक डील पर आज बहस छिड़ गई है। कुछ बड़े अर्थशास्त्रियों और जानकारों का कहना है कि 1997 में अमेरिका के साथ हुए एक समझौते ने भारत की कमर तोड़ दी और उसे कंप्यूटर हार्डवेयर बनाने की रेस में चीन और ताइवान जैसे देशों से हमेशा के लिए पीछे धकेल दिया।

यह कहानी है 1997 के 'सूचना प्रौद्योगिकी समझौते' (Information Technology Agreement) की। तब अमेरिका में बिल क्लिंटन की सरकार थी। इस समझौते के तहत भारत और अमेरिका के बीच आईटी से जुड़ी सभी चीजों पर टैक्स और व्यापारिक बाधाएं हटा दी गईं।

सुनने में तो यह बहुत अच्छा लगता है, लेकिन आरोप है कि यहीं पर एक बड़ा खेल हो गया।

कैसे 'सॉफ्टवेयर के सपने' दिखाकर हार्डवेयर को किया गया खत्म?

जानकारों का कहना है कि उस वक्त भारतीय उद्योग चाहता था कि कंप्यूटर हार्डवेयर पर टैक्स बना रहे ताकि देश में बन रहे कंप्यूटर और दूसरे पार्ट्स को विदेशी कंपनियों से मुकाबला करने में मदद मिले। लेकिन, क्लिंटन सरकार ने उस समय की भारत सरकार को यह कहकर मना लिया कि भारत की असली ताकत सॉफ्टवेयर बनाने में है, हार्डवेयर में नहीं। अमेरिका ने भारत को सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट और कॉल सेंटर जैसी सेवाओं पर ही ध्यान देने के लिए राजी कर लिया।

उन्होंने आगे आरोप लगाया कि भारत में अमेरिका द्वारा प्रायोजित मीडिया ने इस बात को "सॉफ्टवेयर सुपरपावर" बताकर भारतीयों के सामने खूब बेचा। अखबारों और चैनलों ने हमें दिन-रात यही बताया कि हम सॉफ्टवेयर के बादशाह हैं।

हमारे पास अपना खुद का एक ईमेल प्लेटफॉर्म तक नहीं है। हमारा आईटी सेक्टर मुनाफे के लिए पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर है। हमारे सैकड़ों इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसे कंप्यूटर साइंस ग्रेजुएट बना रहे हैं, जिनकी नौकरियां बहुत जल्द AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) छीन लेगी।

नीति आयोग के सदस्य ने भी किया समर्थन

दिव्या कुमार सोती की इस बात को और बल मिला जब नीति आयोग के सदस्य और अर्थशास्त्री डॉ. अरविंद विरमानी ने उनके पोस्ट पर जवाब देते हुए कहा कि वह शायद एकमात्र ऐसे अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने उस समय इस समझौते का विरोध किया था।