Up Kiran, Digital Desk: हर साल त्योहारों की रौनक खत्म होते ही दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत की हवा जहरीली हो जाती है। आँखों में जलन, गले में खराश और सुबह उठते ही धुंध की मोटी चादर। लोग मास्क लगाते हैं, स्कूल बंद होते हैं और डॉक्टरों की लाइनें लंबी हो जाती हैं। इसमें सबसे बड़ा हाथ रहता है पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों से उठने वाले धुएँ का। नाम है पराली जलाने का।
किसान मजबूर हैं। फसल काटने के बाद अगली फसल के लिए खेत जल्दी खाली करना पड़ता है। मशीनें महँगी, मजदूर कम और समय बेहद कम। सबसे आसान रास्ता लगता है पराली को आग लगा दो। बस एक माचिस और सारा कचरा खत्म। लेकिन यह आग लाखों लोगों की साँसें छीन लेती है।
इसी दिक्कत को समझते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने एक नया और सुलझा हुआ कदम उठाया है। नाम रखा है “पराली दो खाद लो”। सुनने में जितना सीधा है करना भी उतना ही आसान बनाया गया है।
योजना दरअसल चलती कैसे है?
किसान अब अपनी पराली खेत में जलाने की बजाय गाँव या ब्लाक स्तर पर बने संग्रहण केंद्रों तक पहुँचा देते हैं। वहाँ वजन होता है और उसी हिसाब से उन्हें तुरंत मुफ्त जैविक खाद दे दी जाती है। कोई कागज नहीं कोई लंबी प्रक्रिया नहीं। पराली दी और खाद लेकर घर लौटे।
यह खाद कोई साधारण खाद नहीं है। गोबर गाय का मूत्र नीम और दूसरी जड़ी-बूटियों से बनी आयुर्वेदिक खाद है जो मिट्टी को सालों तक भारी रासायनिक उर्वरकों की लत से बाहर निकाल सकती है। सरकार का दावा है कि एक एकड़ पराली से लगभग 8-10 क्विंटल अच्छी खाद बन जाती है जो किसान को सीधे मिल रही है।
किसान खुश या सिर्फ सरकारी दावा?
पहले चरण में यह योजना मेरठ बागपत मुजफ्फरनगर शामली और सहारनपुर जैसे जिलों में शुरू की गई। वहाँ के किसानों से जब बात की तो ज्यादातर ने इसे हाथों हाथ लिया। एक किसान ने बताया कि पहले पराली जलाने पर पुलिस का डर रहता था जुर्माना भरना पड़ता था और पड़ोसियों से झगड़ा होता था। अब न डर न झगड़ा और ऊपर से खाद मुफ्त।
दूसरा बड़ा फायदा यह है कि अब खेत में राख नहीं बची रहती जो मिट्टी को बंजर बनाती थी। जैविक खाद डालने से अगली फसल में दीमक और दूसरी बीमारियाँ कम आईं और गन्ने व गेहूँ की बालियाँ पहले से ज्यादा भारी दिख रही हैं।
क्या सच में प्रदूषण कम हो रहा है?
अभी पूरे आँकड़े तो नहीं आए लेकिन जो शुरुआती रिपोर्ट्स हैं वे उम्मीद जगाती हैं। पिछले साल की तुलना में इन पायलट जिलों में पराली जलाने की घटनाएँ 40 फीसदी तक कम दर्ज की गई हैं। अगर यही रफ्तार रही तो आने वाले दो-तीन साल में पश्चिमी यूपी से उठने वाला धुआँ काफी हद तक काबू में आ सकता है।

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