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सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस महत्वपूर्ण मामले पर सुनवाई कर रही है। सुनवाई के दौरान, केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि राज्यपाल को यह देखने का अधिकार है कि क्या राज्य विधानसभा ने अपनी शक्तियों के दायरे में रहकर कानून बनाया है या नहीं। उन्होंने कहा कि राज्यपाल "सिर्फ एक रबर स्टैंप" नहीं हो सकते।
सिब्बल और धवन ने किया कड़ा विरोध
वहीं, पंजाब सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने इस तर्क का जोरदार विरोध किया। उन्होंने कहा कि एक बार जब कोई बिल सदन से बहुमत से पारित हो जाता है, तो राज्यपाल को उसकी विधायी क्षमता (legislative competence) की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है।
कपिल सिब्बल ने पूछा, "क्या राज्यपाल विधानसभा की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठा सकते हैं? नहीं। वह यह नहीं कह सकते कि यह कानून बुरा है... उनकी भूमिका केवल यह देखने तक सीमित है कि क्या बिल को पारित करने में कोई प्रक्रियात्मक खामी है या नहीं।" उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर राज्यपालों को बिलों की पड़ताल करने की शक्ति दे दी गई, तो वे राज्य सरकारों के कामकाज में बाधा डालेंगे।
मुख्य न्यायाधीश ने भी उठाए सवाल
सुनवाई के दौरान, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भी टिप्पणी करते हुए कहा कि एक राज्यपाल को शायद केवल स्पष्ट रूप से असंवैधानिक बिलों के मामलों में ही हस्तक्षेप करना चाहिए, न कि हर मामले में अपनी राय बनानी चाहिए।
यह मामला तब सामने आया जब पंजाब, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे कई गैर-बीजेपी शासित राज्यों ने आरोप लगाया कि राज्यपाल उनके द्वारा पारित बिलों को मंजूरी देने में जानबूझकर देरी कर रहे हैं, जिससे सरकार के कामकाज में बाधा आ रही है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला अब यह तय करेगा कि राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच शक्तियों का संतुलन क्या होगा।
 
                    



