
मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है। लेकिन मुस्लिम समुदाय, खासकर शिया मुस्लिम, इस महीने को जश्न के बजाय ग़म और मातम के साथ मनाते हैं। इसका कारण है 1400 साल पहले करबला के मैदान में हुआ एक ऐतिहासिक और दर्दनाक बलिदान।
करबला की लड़ाई इराक के करबला नामक स्थान पर 680 ईस्वी में हुई थी। इस लड़ाई में हज़रत इमाम हुसैन, जो पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे, ने अपने 72 साथियों के साथ ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई। इमाम हुसैन ने यज़ीद नामक शासक की बात मानने से इनकार कर दिया, क्योंकि यज़ीद के शासन को वे अन्यायपूर्ण और धर्म विरोधी मानते थे।
यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके परिवार को करबला में घेर लिया। कई दिनों तक उन्हें पानी तक नहीं दिया गया। भूख और प्यास के बीच इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने धर्म और सच्चाई के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। इस लड़ाई में छोटे बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक शहीद हो गए।
मुहर्रम की 10वीं तारीख को 'यौमे आशूरा' कहा जाता है, जिस दिन इमाम हुसैन शहीद हुए थे। इस दिन शिया मुस्लिम काले कपड़े पहनते हैं, मातम करते हैं, ताज़िए निकालते हैं और इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते हैं।
यह मातम सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि इंसाफ, हक़ और इंसानियत के लिए दी गई कुर्बानी की याद है। करबला हमें सिखाता है कि ज़ुल्म चाहे कितना भी बड़ा हो, सच्चाई के सामने टिक नहीं सकता।
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