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(पवन सिंह)

मैं पूरे होशो-हवास में ये शब्द अपने लेख में दर्ज कर सकता हूं कि इस देश में न्यायिक चरित्र कभी रहा ही नहीं..! इसका नतीजा यह हुआ कि देश में हर क्षेत्र में अपराध और आपराधिक मानसिकता का विस्तार हुआ। सामाजिक तौर पर इसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाएं व गरीब और अक्षम तबका भोगता आया है। पिछले दिनों मुझे लखनऊ के शिरोज कैफे में छांव फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था..। शिरोज कैफे, गोमतीनगर लखनऊ से मेरा भावनात्मक लगाव रहा है क्योंकि यह ऐसिड पीड़ित बच्चियों और महिलाओं के द्वारा संचालित है। सिम्पोजियम में चर्चा का विषय था- VOICE OF COURAGE इसमें कानूनी पक्ष और चिकित्सकीय पक्ष की चर्चा हुई,  मीडिया से भी लोग बुलाये गये और पुलिस प्रशासन से जुड़े लोग भी आमंत्रित थे.. हालांकि इतने संवेदनशील विषय पर आयोजित सिंपोजियम से पुलिस प्रशासन हमेशा की तरह नदारद रहा। देश में कानून  खूब बने और बन रहे हैं.. पीड़ित महिलाओं को न्याय भी जैसे-तैसे मिल ही रहा है लेकिन कैसे? कितने विलंब से..!! ...चौखट दर चौखट नाक रगड़ कर क्यों?  यह "क्यों" शब्द ही सबसे बड़ी समस्या है और यहीं एक शब्द आता है "न्यायिक चरित्र" का...जिससे समूचा भारतीय समाज अपने को पूरी ईमानदारी से अलग-थलग किये हुए है।

पुलिस का महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के प्रति नजरिया पूरी तरह से असंवेदनशील हैं और एक महिला को एक अदद एफआईआर के लिए एवरेस्ट फतह जैसी लड़ाई लड़नी होती है।  इसके बाद यहीनो-सालों तक सुनवाई चलती है। उधर जमानत पर हैसियत के अनुसार अपराधी बाहर होता है और वह एफआईआर वापस लेने का दबाव बनाता है...अक्सर खबरें आती हैं कि पीड़ित महिला की हत्या हो गई..!! यहीं पर, न्यायिक चरित्र सामने आता है...हम सब के सब अपनी-अपनी सुविधानुसार अपना न्याययिक चरित्र चुनते, बुनते और उसे अपने भीतर उतारते रहते हैं। सत्ता के अनुसार सत्ताधीशों की नजरों में पुलिसिंग अपना न्यायिक चरित्र बुनती और हटाती रहती है... न्यायालय स्तर पर सत्ता के हिसाब से न्यायिक चरित्र बनता और मिटता रहता है...!! इधर एक नई परंपरा बन गई है जजों के रिटायर्ड होने के बाद राज्यपाल या किसी आयोग आदि का अध्यक्ष बनने की। इस न्यायिक चरित्र पर कुछ पुराने जज खुल कर लिख चुके हैं।

भारतीय पुलिस,  कभी भारतीय जनता  पुलिस नहीं बन पाई। वह कभी भारतीय जनता पार्टी पुलिस, कभी भारतीय कांग्रेस पुलिस, कभी भारतीय समाजवादी पुलिस, कभी भारतीय बहुजन पुलिस...जैसी भूमिकाओं को बदलती रहती है....जब चाहत येन-केन-प्रकारेण प्राइम पोस्टिंग और तमंगों की उमंग की होती है तो न्यायिक चरित्र नहीं रहता और इसका सबसे बड़ा खामियाजा महिलाएं भोगती हैं। मीडिया का हाल इन सबसे ज्यादा बुरा है। वह सत्ताओं के हिसाब से नृत्यांगना की भूमिका में रहता है। मैं यह बेधड़क लिख सकता हूं कि 2014 के बाद से मीडिया ने खुद को जनसरोकारी पत्रकारिता व मुद्दों से पूरी तरह से खुद को अलग कर लिया है। वह बंगाल में रेप और हत्या की खबर को अलग नजरिए से देखता है और उत्तर प्रदेश में होने वाले रेप व हत्याओं की खबरों को सिरे से खा जाता है।

पश्चिम बंगाल की घटना खबर होती है और राम मंदिर में एक सफाईकर्मी बच्ची के साथ रेप की घटना खबर ही नहीं होती है। वह रूटीन खबरों की तरह निपटा दी जाती है। लखीमपुर में तीन सगी बहनों की रेप के बाद हत्या, विंध्याचल में महिला दर्शनार्थी के साथ पति के सामने रेप, जोधपुर में साढ़े तीन साल की बच्ची से रेप की खबरों पर लगभग चुप्पी...अजमेर में 100 से ज्यादा लड़कियों के साथ गैंग रेप और 32 साल बाद फैंसला...वह तब जब छह लड़कियों ने आत्महत्या कर ली थी...!! मैं यह लिखना चाहूंगा कि जब-जब मीडिया अपने न्यायिक चरित्र पर उतरा है पीड़िता को न्याय मिला है वह चाहे जेसिका लाल कांड हो या निर्भया... लेकिन सच यह है कि 2014 के बाद मीडिया घोर साम्प्रदायिक और जातिवादी हुआ है और उसका खामियाजा महिलाएं उठा रही हैं। यूपी में साल 2020 में 49385 महिला अपराध के मामले दर्ज किये गए थे. वहीं ये आंकड़ा साल 2021 में बढ़कर 56083 हो गया. तो वहीं साल 2022 के आंकड़ों में और जोरदार इजाफा हुआ है. आंकड़ों के अनुसार साल 2022 में 65743 घटनाएं हुईं..। ये आंकड़े डराते हैं लेकिन इन भयावह घटनाओं में से राई के बोरे से एक राई का दाना चुनने के समान मीडिया ने कवरेज की...यह मीडिया का न्यायिक चरित्र है...!!

एसिड अटैक सोचा-समझा और योजनाबद्ध अटैक होता है लेकिन बांग्लादेश की तरह इस नृशंसता के खिलाफ जिस तरह का सख्त कानून बनना चाहिए वह आज तक भारत में नहीं बना? बांग्लादेश में जब एसिड अटैक पर रूह कपां देने वाला कानून बना तो घटनाएं लगभग खत्म हो गईं...!!! एक टाइम लिमिट के भीतर सजा होने लगी और सजा व फाईन इतना कि बांग्लादेश में लोग ट्वायेट के लिए भी एसिड खरीद करने में सोचने लगे और भारत...!!! बुल्डोजर न्याय का प्रतीक कभी नहीं बन सकता ..।  तात्कालिक न्याय, महिला अपराधियों के प्रति जीरो टार्लेंस, जमानत के प्रावधानों को सख़्त बना देना और छह माह में ही सजा..का प्रावधान ही डर बनेगा, बुल्डोजर नहीं....। मीडिया को रंग, जाति और धर्म से परे होकर महिलाओं को केवल महिला मानने का न्यायिक चरित्र विकसित करने की जरूरत है...वरना सिम्पोजियम होती ही रहेंगी और बातें भी...!! कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या?
 

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