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लखनऊ. सपा-बसपा गठबंधन के ऐलान के साथ ही यूपी के बारे में अनुमान लगाए जा रहे हैं कि इस बार बीजेपी के लिए पिछली बार की तरह प्रदर्शन को दोहराना एक बड़ी चुनौती होगी। 2014 आम चुनावों के आंकड़ों के आधार पर कागज पर तमाम जोड़-घटाव हो रहे हैं। उनके आधार पर निष्‍कर्ष निकाले जा रहे हैं कि बीजेपी को नुकसान होना तय है।

उसके पीछे सारा तर्क इस तथ्‍य पर आधारित है कि 1993 में सपा-बसपा ने गठबंधन कर जिस तरह मंदिर आंदोलन के रथ पर सवार बीजेपी को यूपी में शिकस्‍त दी थी, कमोबेश वैसा ही करिश्‍मा इस बार यूपी में कर सकते हैं। इसके पीछे उस जातीय गठजोड़ को अहम माना जा रहा है जो सपा और बसपा का कोर वोटर कहा जाता है।

दरअसल इन तथ्‍यों के बीच यह भी समझने की बात है कि फिलहाल यूपी का सियासी माहौल 1993 से बिल्‍कुल अलग है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि मजबूत जातिगत वोटबैंक वाले दल अब केवल सपा-बसपा ही नहीं हैं बल्कि जातीय आधार वाले कई अन्‍य छोटे दल वक्‍त के साथ यूपी की सियासी जमीन पर पनपे हैं। इसलिए पिछड़े और दलितों के रहनुमा एकमुश्‍त केवल अब सपा-बसपा ही नहीं रह गए हैं। चुनावों में इनकी अहम भूमिका इसलिए मानी जा रही है क्‍योंकि ये ‘वोटकटवा’ बनकर किसी का भी सियासी खेल खराब कर सकते हैं। इसलिए ऊंट किस करवट बैठेगा, उसका आकलन करना अभी थोड़ी जल्‍दबाजी होगी।

इसके आधार पर ये भी कहा जा रहा है कि अब मुकाबला यूपी में सीधेतौर पर सपा-बसपा और बीजेपी के बीच ही नहीं होगा, बल्कि फिलहाल कांग्रेस के अलग लड़ने से मामला त्रिकोणीय दिख रहा है। इसके साथ-साथ ‘वोटकटवा’ कहे जाने वाले इन दलों ने भी यदि मोर्चेबंदी की तो मामला बहुकोणीय हो जाएगा। आंकड़ों के लिहाज से इस तरह का बहुकोणीय मुकाबला होने पर बीजेपी को लाभ मिल सकता है।

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