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Up Kiran, Digital Desk: जब सड़क के किनारे या इंटरनेट पर 5–10 लाख में BMW, Audi या Mercedes जैसी प्रीमियम गाड़ियां दिखाई देती हैं, तो आमतौर पर सबसे पहले जो ख्याल आता है, वह है... चौंकना। आखिरकार इतनी महंगी गाड़ियां इतनी सस्ती कैसे हो सकती हैं। कई बार तो 4-5 साल पुराने मॉडल भी इसी कीमत पर बिक रहे होते हैं, जिन्हें देख कर यकीन करना मुश्किल हो जाता है। सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो भरे पड़े हैं, जहां बेहद सस्ती कीमतों में लग्ज़री सेकंड हैंड गाड़ियों के बेचने का दावा किया जाता है। यह कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि एक ऐसा तरीका है जिसका बहुतों को बिल्कुल भी पता नहीं होता।

कई बार आप इन सेकेंड हैंड गाड़ियों को देखकर यह भी नहीं समझ पाते कि इनकी पिछली कहानी क्या है। कुछ घटनाएं टूटे हुए हिस्सों में दब चुकी हैं... कुछ रीपेंट की हुई बॉडी में... और कुछ उन्हीं हिस्सों में जो कभी किसी बड़े हादसे का हिस्सा रहे हैं। पुरानी गाड़ियों का बाज़ार अब उतना पारदर्शी नहीं है जितना कि दिखाई देता है। और इसी धुंध के पीछे छुपी है एक खतरनाक हकीकत, जिसे जानना और अच्छे से समझना आपके लिए जरूरी है।

कार की IDV वैल्यू

कार खरीदते वक्त बीमा अनिवार्य होता है। बीमा के साथ हर वाहन को एक इंश्योर्ड डिक्लेयर्ड वैल्यू (IDV) दी जाती है। यह वैल्यू कार के सालाना मूल्यह्रास के बाद तय होती है, और किसी बड़े नुकसान या हादसे की स्थिति में, बीमा कंपनी इसी आंकड़े को आधार मानकर वाहन मालिक को भुगतान करती है। यानी अगर कार पूरी तरह से नष्ट हो जाती है, तो इंश्योरेंस कंपनी वाहन मालिक को उतनी राशि देती है जितनी कि वाहन की IDV होती है।

जब लग्ज़री गाड़ी का एक्सीडेंट होता है

जब BMW, Audi या Mercedes जैसी महंगी गाड़ियों का बड़ा हादसा होता है, तो इनकी मरम्मत का खर्च काफी अधिक होता है। इनके पुर्जे और रिपेयर बेहद महंगे होते हैं। मान लीजिए BMW 3 Series का बड़ा एक्सीडेंट हो गया और सर्विस सेंटर में रिपेयर का खर्च 25-30 लाख रुपये आया, जो कि इन ब्रांड्स के लिए आम बात है। अगर उस गाड़ी की CVD वैल्यू 35-40 लाख रुपये है, तो बीमा कंपनी गाड़ी को ठीक करने की बजाय उसे "टोटल लॉस" घोषित कर सकती है। इसका मतलब है कि गाड़ी को पूरी तरह से नष्ट कर दिया जाता है और मालिक को CVD के बराबर पैसा दिया जाता है। और यहीं से खेल शुरू होता है...

टोटल लॉस के बाद गाड़ी का क्या होता है

अक्सर लोग मानते हैं कि टोटल लॉस गाड़ियां सीधे कबाड़ में चली जाती हैं। मगर असलियत कुछ और है। बीमा कंपनियां ऐसी गाड़ियों को विशेष विक्रेताओं को बेच देती हैं। ये विक्रेता तो कई बार मौके पर ही जाकर गाड़ी की हालत का जायजा लेते हैं और अनुमान लगाते हैं कि इसे फिर से चलने के काबिल बनाने में कितना खर्च आएगा। ये विक्रेता आम तौर पर IDV के 50-60% में गाड़ी खरीदते हैं। अगर IDV 30 लाख रुपये थी, तो उन्हें यह गाड़ी 18-20 लाख रुपये में मिल जाती है।

विक्रेता कैसे बनाते हैं गाड़ी को नया

ये विक्रेता गाड़ी को पूरी तरह से नया जैसा बना देते हैं। इस्तेमाल किए गए पुर्जों, इम्पोर्टेड पार्ट्स, फैब्रिकेटेड घटकों और फिर से उपयोग किए गए संरचनात्मक हिस्सों की मदद से गाड़ी को फिर से तैयार किया जाता है। कई बार अधिकृत सर्विस सेंटर किसी गाड़ी को रिपेयर न करने योग्य घोषित कर देता है, लेकिन ये विक्रेता उसे भी सड़क पर दौड़ने लायक बना देते हैं।

फिर होती है यूज़्ड कार मार्केट में एंट्री

गाड़ी को फिर से तैयार करने के बाद वही गाड़ी 25-27 लाख रुपये में एक यूज़्ड कार डीलर को बेच दी जाती है। डीलर उसे फिर से 30 लाख रुपये के आसपास ग्राहक को ऑफर करता है। इस प्रकार एक 80 लाख रुपये की गाड़ी कुछ ही हाथों से होकर 30 लाख रुपये में सेकेंड हैंड मार्केट में उपलब्ध हो जाती है। पुराने मॉडल में IDV और भी कम होती है, इसलिए उनकी कीमत 5-10 लाख रुपये तक पहुंच जाती है।

सबसे बड़ा सच और सबसे बड़ा खतरा

इस पूरे खेल में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खरीदार को अक्सर यह नहीं पता चलता कि वह जिस गाड़ी को खरीदने जा रहा है, वह कभी टोटल लॉस हो चुकी थी। कानूनी दावों, दस्तावेज़ों के स्थानांतरण और अनधिकृत चैनलों से गाड़ी की वास्तविक जानकारी को छुपा लिया जाता है। इसके बाद मैकेनिक और विक्रेता गाड़ी को इस तरह से चमकाते हैं कि खरीदार को एक भी एक्सीडेंट का अंदाजा नहीं होता।

अव्यवस्थित बाज़ार

Primus Partners के मैनेजिंग डायरेक्टर अनुराग सिंह बताते हैं, "यूज़्ड कारों का बाज़ार, खासकर सस्ती गाड़ियों के लिए, आज भी बुरी तरह अव्यवस्थित है।" वे कहते हैं कि गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त गाड़ियों की मरम्मत बहुत महंगी और जटिल होती है। इसलिए अक्सर बीमा कंपनियां ऐसी गाड़ियों को टोटल लॉस घोषित कर देती हैं।

स्क्रैप गाड़ी और खतरनाक डील

अनुराग सिंह बताते हैं, "कई स्पेशलाइज्ड यूज़्ड कार डीलर टोटल लॉस गाड़ियों को कबाड़ (स्क्रैप) के मूल्य पर खरीद लेते हैं। फिर वे सस्ते तरीके से उसे 'ठीक' कर लेते हैं। बाहर से गाड़ी चमकती हुई दिखती है, लेकिन अंदर से वह विश्वास के लायक नहीं होती। नतीजतन, ग्राहक को एक ऐसी गाड़ी मिलती है जो किसी भी वक्त धोखा दे सकती है।"

दुर्घटना की सच्चाई छुपाने की तरकीबें

कई यूज़्ड कार डीलर ग्राहकों से ज्यादा पैसे लेने के लिए गाड़ी के एक्सीडेंटल इतिहास को छुपा लेते हैं। वे जानते हैं कि हादसों में हुई गाड़ियां ग्राहक को पसंद नहीं आतीं, इसलिए वे गाड़ी के इतिहास को दबा देते हैं और उसे सामान्य बताकर बेच देते हैं। दूसरी ओर, ग्राहक इन डीलर्स की चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस जाते हैं।

इतिहास जांचने के तरीके, लेकिन मुश्किलें बनी रहती हैं

गाड़ी का असली इतिहास जानने के कई तरीके हैं, जैसे इंश्योरेंस क्लेम रिकॉर्ड, सर्विस हिस्ट्री और ओनरशिप हिस्ट्री। लेकिन यह जानकारी अलग-अलग स्थानों पर होती है, और इन्हें एकत्र करना कठिन होता है, कई बार यह जानकारी विश्वसनीय भी नहीं होती। एक आम व्यक्ति के लिए, जिसके पास समय की कमी होती है, यह काम 'भूसे के ढेर में सुई' ढूंढने जैसा होता है।

इंश्योरेंस रिकॉर्ड भी हमेशा सच नहीं बताते

अगर किसी हादसे के बाद इंश्योरेंस क्लेम नहीं किया गया या डेटा देर से अपडेट हुआ हो, तो हादसे की जानकारी रिकॉर्ड में नहीं दिखाई देती। इसका मतलब यह है कि ग्राहक को यह भी नहीं पता चलता कि वह जो कार खरीदने जा रहा है, वह कभी किसी हादसे का शिकार हुई थी। इसलिए कई बार इंश्योरेंस क्लेम भी पूरी सच्चाई नहीं बताते।

IDV और यूज़्ड कारों की कीमत का उलझा हुआ चक्र

अनुराग सिंह बताते हैं, "IDV यानी इंश्योर्ड डिक्लेयर्ड वैल्यू का निर्धारण यूज़्ड कारों की कीमत पर आधारित होता है। और फिर वही IDV इस्तेमाल की गई कार की कीमत को प्रभावित करती है। यह एक तरह का चक्रीय तर्क है जिसमें ग्राहक अक्सर उलझ जाता है। इसके अलावा, ग्राहक के पास कम या ज्यादा IDV चुनने का विकल्प भी होता है, जो स्थिति को और उलझा देता है।"